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धर्मध्यान का वर्गीकरण(१९७)
ध्यान स्तव मे भी लगभग आदिपुराण की तरह ही धर्मध्यान के स्वामी का वर्णन किया गया है।
ज्ञानार्णव में मुख्य और उपचार के भेद से धर्म ध्यान के स्वामी अप्रमत्त और प्रमत्त मुनि कहे गये हैं ।...
हरिवंश पुराण में इस प्रसंग में केवल इतना ही कहा गया है कि प्रमाद के अभाव से उत्पन्न होने वाला वह अप्रमतगुणस्थान भूमिक हैअप्रमतगुणस्थान तक होता है । यहाँ यह नहीं कहा गया कि वह प्रथम से सातवें गुणस्थान तक होता है या केवल सातवें गुणस्थान तक IX
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अधिकांश ग्रन्थकारों ने केवल उन्हीं शब्दों द्वारा ही वर्णन किया है जो पहले से प्रचलित थे, लेकिन स्पष्ट वर्णन नहीं किया।
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* मुख्यं धयं प्रमर्तादित्रये गौणं हि तत्प्रभो।
धम्यंमेवातिशुद्धं स्थाच्छ क्लं श्रेष्योश्च तुर्विधम् ।। (ध्यानस्तव १६) .... मुख्योपचार भेदेन द्वौ मुनी स्वामिनी मती। - अप्रमत्त-प्रमत्ताख्यो धर्मस्येतौ यथायथम् ॥ (ज्ञानार्णव ३१) - हरिवंशपुराण ५६/५१