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________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१६५) निक्षेप, सूयूक्ति से दूर करना, स्वसमयभूषण पर समय दूषण रूप से चिन्तन करना हेतु विचय धर्म ध्यान कहलाता है । भगवान् सर्वज्ञ देव के कहे हए पदार्थो को जो संसार भर में स्थापित कर देते हैं या उनके यथार्थ स्वरूप को अपने हृदय में स्थापित कर लेते हैं उनको हेतु विचय धर्मध्यान कहा गया है । धर्म ध्यान के गुणस्थान एवं स्वामी : धर्मध्यान के स्वामी के विषय में विद्वानों में परस्पर मतभेद रहा है जैसे तत्त्वार्थ सूत्र में अप्रमत्तसंयत, उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय से उसका सद्भाव प्रगट किया गया है → यहां "अप्रमत्तसंयतस्य" से उसके केवल सातवे गुण स्थान को ही ग्रहण किया गया है, उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय शब्दों से ग्यारहवाँ एवं बारहवाँ ये दो गुणस्थान पता चलते हैं ऐसे में आठवें, नवें एवं दसवें गुणस्थानों में कौन सा ध्यान होता है यह स्पष्ट नहीं होता और यही बात ध्यान देने योग्य है। ध्यानशतक में भी लगभग ऐसा ही वर्णन प्राप्त होता है वहाँ पर भी अप्रमतसंयत से लेकर सूक्ष्म साम्पराय तक सभी साधक धर्मध्यानी कहे गये हैं लेकिन उपशान्तमोह और क्षीणमोह का अलग से वर्णन किया है।ॐ धवला में धर्म ध्यान के स्वामियों का स्पष्ट रूप से वर्णन किया गया है । वहाँ धर्म ध्यान की प्रवृत्ति असंयतसम्यगदृष्टि, संयतासंयत, प्रमतसंयत, अप्रमतसंयत, अपूर्वसंयत, अनिवृत्तिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिक A (क) तर्कानुसारिणः पुंसः स्याद्वादप्रक्रियाश्रयात्। सन्मार्गाश्रयणध्यानं यद्धेतुविचयं हि तत् ॥ (हरिवंशपुराण ५६/५०) (ख)सर्वज्ञोक्ता: पदार्थाद्या: स्थापयन्ते यत्र भूतले। यथातथ्येनचित्तवा तद्धतुविचयाभिधम् ।। (मूलाचार प्रदीप ६/२०६५) (ग) चारित्रसार २०२/३ → तत्त्वार्थ सूत्र टीका ६/३८/४२२ ॐ सबप्पमायरहिया मुणओखीणोवसंतमोहा य । झायारो नाण-धणा धम्मज्झाणस्स णिदिदट्ठा ।। (ध्यान शतक ६३)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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