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(१९४)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन विषैले हैं, अत: इनसे विरक्त बुद्धि होना परमावश्यक है । यह संसार भी अनंत दुःखों से भरा हुआ है और सुख से सर्वथा दूर है ऐसा विचार करना विराग विचय धर्मध्यान है।* भव विचय धर्म ध्यान :
चारों गतियों में भ्रमण करने वाले इन जीवों को मरने के बाद जो पर्याय होती है वह भव कहलाता है यह भव दुःखरूप है इस प्रकार का चिन्तवन करना भव विचय धर्म ध्यान कहलाता है। इस संमार में कर्मो के जाल में फंसे हुए प्राणी अपने कर्मो के उदय से अनेक प्रकार की योनियों में निरन्तर घूमते रहते हैं ऐसा चिन्तवन करना भव विचय धर्मध्यान है।..सम्यदर्शन, सम्यकचारित्र के बिना यह जीव इस अनन्त संसार में भव धारण करता है ऐसा ध्यान करना भवविचय धर्म ध्यान है। हेतु विचय धर्म ध्यान :
सूक्ष्म परमागम में यदि कहों भेद प्रतीत हो तो उसे प्रमाण, नय, *(क) शरीरमशुचिर्भोगा किंपाकफल पाकिनः ।।
विरागबुद्धिरित्यादि विरागविचयं स्मृतम् ॥ (हरिवंश पुराण
५६/४६) (ख) चारित्रसार १७१/१ (ग) अनन्दुः खसम्पूर्णात्संसाराच्चसुखच्युतात् ।
विरक्तिः या सतां चित्ते विराग विचयं हि तत् ।। (मूलाचार
प्रदीप ६/२०५७) x (क) प्रेत्यभावो भवोऽमीषां चतुर्गतिषु देहिनाम् ।
दुःखात्मेत्यादि चिन्ता तु भवादि विचयं पुनः ।। (हरिवंश
पुराण ५६/४७) (ख) चारित्रसार १७६/१ ... अनन्तदुखसंकीर्णे भवेनादौ सुखातिगे।
सचित्ताचित्तमिश्रादिनानायोनिषुकर्मभिः ।। भ्रमन्ति प्राणिनोश्रान्तंकर्मपाशवृता इति । । भवभ्रमण दुःखानुचिन्तनंध्यानसप्तमम् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०५८-५६)