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धमंध्यान का वर्गीकरण[१६३]
वह स्वयं ही धारण करता है। संकोच विस्तार तथा ऊर्ध्वगमन करने वाला भी स्वयं ही है इस प्रकार जीव की विविध दशाओं का ध्यान करना जीव विचय धर्म ध्यान कहलाता है। + यह जीव अत्यन्त सूक्ष्म है, असंख्यात प्रदेशी है और कर्मों के अधीन होकर इस जाम-मरण रूप संसार में निरन्तर आवागमन करता रहता है । अजीव विचय धर्मध्यान :
धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल इन पाँचों अजीव द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप का चिन्तन करना अजीव विचय धर्मध्यान है।योगी लोग इन पांचों अजीव द्रव्यों के स्वरूप के चिन्तन के साथसाथ उनके उत्पाद व्यय ध्रौव्य गुणों के द्वारा चिन्तन करते हैं ।विराग विचय धर्म ध्यान :
यह शरीर अनित्य है, अशरण है, वात, पित्त, कफ से दोषमय है । रक्त, रस, माँस मेदा, हड्डी, मज्जा तथा वीर्य इन सात धातुओं से भरा हुआ है एवं मूत्रादि भिष्टा पदार्थो का घर है, इसके भोग किंपाक फल के समान तत्काल सुन्दर तथा फल काल में भयानक + (क) अनादि निधना जीवा द्रव्यार्थादन्यथान्यथा ।
असख्येय प्रदेशास्ते स्वोपयोगत्व लक्षणाः ॥ अचेतनोपकरणाः स्वकृतोचित्त भोगिनः । इत्यादि चेतना ध्यानं यज्जीव विचयं हित त् ॥ [हरिवंश
पुराण ५६/४२-४३) सूक्षमसंख्यप्रदेशोऽत्रपराधीनोऽनिशंभमेत् । [मूलाचार प्रदीप
६/२०५१]
चारित्रसार १७३/५ -- द्रव्याणाप्यजीवानां धर्माधर्मादिसंज्ञिनाम् ।
स्वभाव चिन्तनं धय॑मजीवविचयं मतम् ॥ (हरिवंशपुराण ५६/४४) = धर्मा धर्मनभ: कालपुद्गलानां जिनागमे । अचेतनमयानां च धर्मध्यानाय योगिनाम् ।। अनेक गुण पर्यायैः स्वरूपचिन्तनं हृदि।। ध्रौव्योत्पादव्ययैर्यत्तदजोवविचयं परम् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०५२-५३)