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( ३२ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
महर्षि पतञ्जलि ने अष्टांग योग में ध्यान को सातवें क्रम में रखा है- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि | किन्तु इसका मतलब यह नहीं निकलता कि प्रत्येक अग अपने में पूर्ण है । अगर देखा जाय तो पता चलता है कि स्त्रतन्त्र रूप से इन अंगों का अपना कोई अस्तित्व नहीं रह पाता । ये अंग तो मात्र साधना की दृष्टि से किये गये हैं कि जिनसे साधक क्रमशः मन, बचन एवं का की शुद्धि करता हुआ बढ़ता है । जैसे ध्यान से पहले धारणा के विषय में बतलाया गया है क्योंकि धारणा के बाद ही ध्यान की स्थिति आती है । धारणा में चित्त को एकाग्र करने के लिए चित्त वृत्तियों को बाँधने का अभ्यास किया जाता है । नाभि, हृदय, सिर, नासिका आदि किसी में भी अपनी सुविधा के अनुसार चित्त को बाँधा जाता हैं । - धारणा की परिपक्व अवस्था ध्यान की अवस्था कहलाती है । ध्यान में ध्येय को देखा जाता है लेकिन जब ध्यान की इस अभ्यास प्रक्रिया में केवल ध्येय मात्र की प्रतीति होती है और चित्त का निज स्वरूप शून्य सा हो तब वही ध्यान समाधि बन जाता है । + समाधि योग अन्तिम एवं चरम अवस्था है जिसमें आलम्बन के आभास ध्यान और ध्येय अलग-अलग भाषित होते हैं ।
असम्प्रज्ञात
समाधि को दो अवस्थाओं में विभक्त किया गया है १- सम्प्रज्ञात समाधि तथा २- असम्प्रज्ञात समाधि । एकाग्र भूमि में एक वस्तु के सतत में भाव लगे रहना सम्प्रज्ञात समाधि है । समाधि के अन्तर्गत सभी वृत्तियों का पूर्णतः निरोध आवश्यक है । सम्प्रज्ञात समाधि के चार भेद किये गये हैं- १- वितर्कानुगत, 4 यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहार धारणा ध्यान समाधयोऽष्टावङ् गानि । योगसूत्र २ /२७
देशबन्ध चित्तस्य धारणा । वही ३ / १
+ तदेवार्थमात्रनिर्भासं स्वरूप शून्यमिव समाधिः । योगसूत्र ३/३ समाधिर्ध्यानमेव ध्येयाकारनिर्भासं प्रत्ययात्मके स्वरूप शून्य - मिव यदा भवति ध्येय स्वभावावेशा तदासमाधिरित्युच्यते । वही ३, व्यास भाष्य )
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जाता है साधना की से रहित