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________________ भारतीय परम्परा में ध्यान (३३) २- विचरानुगत, ३- आनन्दानुगत तथा ४- अस्मितानुगत सम्प्रज्ञात-समाधि 'सबीज - समः धि' कहलाती है । इसका मूल कारण है कि इसमें अविद्यादि क्लेश कर्मो के वीज नष्ट नहीं हो पाते हैं । ध्याता और ध्येय की प्रतीति बने रहने के कारण समाधि की यह अवस्था पूर्ण योग को प्राप्त नहीं होती है । जबकि असम्प्रज्ञात समाधि में ध्याता, ध्यान, ध्येय तीनों एक रूप हो जाते हैं, यह निर्बीज समाधि भी कहलाती है क्योंकि इसमें समस्त क्लेशों के बीज हो जाते हैं । 4 चित्त की वृत्तियों के निरोध हो जाने से आत्मा अपने स्वरूप हो जाती है । साधना की यह स्थिति ध्यान की सर्वोत्कृष्ट स्थिति कहलाती है। अद्वैत वेदान्त में ध्यान: । भारतीय दर्शनों में वेदान्त का प्रमुख केवल सैद्धान्तिक ही नहीं, व्यवहारिक भी है अर्थ है 'वेदों का अन्त' । आचार्य उदयवीर 'वेदान्त' का पद का तात्पर्य वेदादि के विधिपूर्वक तथा उपासना आदि के अन्त में जो तत्व जाना का विशेष रूप से जहां निरूमण किया गया हो, 'वेदान्त' कहते हैं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया के चक्कर में पड़कर ही जीव भव भ्रमण करता है लेकिन अगर साधक आत्म दर्शन में मग्न रहकर योगारूढ़ हो जाता है तो वह इस संसार से पार हो सकता है 1 X योग का उद्देश्य आत्मा पर पड़े हुए अविद्या के पर्दे को हटाना है । इसी अविद्या के कारण जीव अपनी चित्त शक्ति को पहचान नहीं पाता है । इस आवरण को हटाने के लिए .... स्थान है । यह दर्शन 'वेदान्त' का शाब्दिक शास्त्री के अनुसार अध्ययन, जाये उस तत्व मनन उस शास्त्र को वितर्क विचारानन्दास्मितारूपानुगमात् सम्प्रज्ञातः । योगसूत्र १ / १७ 4 तस्यापि निरोधे सवं निरोधान्निर्बीजः समाधिः । वही १ / ५१ ** तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् । योगदर्शन १/३ वेदान्त दर्शन का इतिहास, पृ० १ **** X उद्धरेदात्मनात्मानं मग्नं संसारवारिधौ । योगारूढत्व मासाद्य सम्यग्दर्शननिष्ठया || ( विवेकचूड़ामणि )
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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