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शुक्ल ध्यान (२०६ )
इसमें साधक कभी तो अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का चिन्तन करने लगता है और कभी शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का । जिस पदार्थ का ध्यान किया जाता है वह अर्थ कहलाता है, उसके प्रतिपादक शब्द को व्यञ्जन कहते हैं और वजन आदि योग कहे गये हैं जिसमें वितर्क के अर्थ यादि में क्रम से अनेक प्रकार के परिबर्तन होते हैं वही पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान कहलाता है । + पृथक् व अर्थात भेद रूप से श्रुत की संक्रान्ति जिस ध्यान में होती है वह पृथक्त्व वितर्कवीचार नामक ध्यान है और भी अनेक जैन विद्वानों ने एक मत से इस शुक्ल ध्यान के भेद के स्वरूप को स्वीकार करते हुए अनेक ग्रन्थों में इसका वर्णन किया है । धवला में भी ज्ञानार्णव के समान पृथक्त्व वितर्कवीचार शुक्ल ध्यान का
+ पृथग्भावः पृथक्त्वं हि नानात्वमभिधोयते । वितर्को द्वादशाङ्गं तु श्रं ज्ञानमनाविलम् ॥ अर्थव्यञ्जनयोगानां वीचारः संक्रमः क्रमात् । ध्येयोऽर्थो व्यञ्जनं शब्दो योगी वागादिलक्षणं ॥
पृथक्त्वेन वितर्कस्य विचारोऽर्थादिषु क्रमात् ।
यस्मिन्नास्ति यथोक्तं तत्प्रथथमं शुवल मिष्यते ॥ (हरिवंश पुराण
५६/५७-५८)
1 तत्त्वार्थसूत्र ६/४१-४४
(क) महापुराण २१ / १७०-७३
(ख) सर्वार्थसिद्धि ९ / ४४/४५६/१ (ग) राजवार्तिक ९ / ४४/१/६३४/२५ (घ) कसायपाहुड, ११/१७/३१२/३३४/६ (ङ) मूलाचार प्रदीप ६/२०८०-८१ (च) द्रव्यसंग्रह टी० ४८ / २०३ (छ) चारित्रसार २०४/१