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(२१०)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
वर्णन किया गया है ।+
इस प्रकार हम देखते हैं कि मन, वचन एवं काय रूप योग में कभी मनोयोग से काययोग या वचनयोग में, वचन योग से काययोग या मनोयोग में, काय योग से मनोयोग या वचन योग में संक्रमण होता रहता है। अतः अर्थ शब्द-योग की दष्टि से संक्रमण होने पर भी ध्येय एक ही रहता है और मन भी एकाग्र रहता है साधक का चित्त अशान्त या अस्थिर नहीं रहता है । आचार्य कुन्दकुन्द ने भी कहा है कि जब इन तीनों योगों को आत्मबुद्धि से ग्रहण किया जाता है, तब तक यह जीव संसार में ही रहता है । = श्रुतपूर्वक मन वचन कायादि में विचारों के संक्रमण के कारण ही जीव संसारी रहता है लेकिन फिर भी अचिन्त्य प्रभाव वाले ध्यान के कारण ही शान्तचित्त वाला मुनि क्षण मात्र में ही अपने समस्त कर्मों को मूल से नाश कर देता है । ... यह ध्यान एक शब्द से दूसरे शब्द पर और एक योग से दूसरे योग पर जाता है। इसी कारण इसको सवितर्कवीचार कहते हैं । + दव्वाइमणेगाइतीहिं वि जोगेहि जेण ज्झायंति ।
उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तं ति तं भणिदं ।। जम्हा सुदं विदक्कं जम्हा पुवगयअत्थकुसलो य । ज्झायदि ज्झाणं एवं सविदक्कं तेण तं ज्झाणं ।। अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमोहु वीचारो। तस्स य भावेण तगं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ [षट्खण्डागम धवला टीका ५/४/२६/५८-६०] = स्वबुद्ध्या यावद्गृहीयात् कायवाक् चेतसा त्रयम् ।
संसारस्ताबदेतेषां भेदाभ्यासे तु निर्वृत्तिः । [समाधितन्त्र ६२] .... अस्याचिन्त्यप्रभावस्य सामर्थ्यात्स प्रशान्तधोः ।
मोहमुन्मूलत्येव शमयत्यथवा क्षणे ॥ 'इदमत्र तु तात्पर्य श्र तस्कन्ध महार्णवात् । अर्थमेकं समादाय ध्यायन्नर्थान्तरं व्रजेत् ॥' (ज्ञानार्णव में उद्धृत,
३, ४२/२०) *शब्दाच्छब्दान्तरं यायाद्योगं योगान्तरादपि । सवीनारमिदं तस्मात्सवितकं च लक्ष्यते ।। (वही ४२/२१)