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शुक्ल ध्यान(२११) इस ध्यान के द्वारा साधक अपने चित्त पर विजय प्राप्त कर लेता है और अपने कषायों को शान्त कर लेता है। इस ध्यान के फलस्वरूप संवर, निर्जरा और अमरसुख प्राप्त होता है, क्योंकि इससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। २-एकत्ववितर्कअवीचार शुक्ल ध्यान :
शुक्ल ध्यान के दूसरे चरण के ध्यान का नाम एकत्ववितर्कअबीचार है । इस ध्यान में साधक श्रु तज्ञान का आलम्बन लेकर भी अभेद प्रधान ध्यान में लीन रहता है, वह न तो अर्थ व्यञ्जन पर संक्रमण करता है और न ही योगों पर, वह तो पर्यायविषयक ध्यान करता है । + इस ध्यान में वितर्क का संक्रमण नहीं होता अपितु एक ही योग का आश्रय लेकर एक ही द्रव्य का ध्याता इसका चिन्तन करता है,एक ही द्रव्य का आलम्बन लेने से इस ध्यान को एकत्व कहते हैं । + जं पूण सुणिककंप निवायसरणाप्पईवमिव चित्त । उप्पाय-ठिइ-भगाइयाणमेगमि पज्जाए । अवियारमत्थ-वंजण-जोगंतरओ तयं बितियसुवकं । पुव्वगयसुयालंबणमेगत्त वितक्कमविचारं ।। (ध्यानशतक ७९-८०) एवं श्र तानसारादेकत्व-वितर्कमेक-पर्याये। अर्थ व्यञ्जन-योगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु । (योगशास्त्र ११/७) (क) द्रव्यं चैकमण चैक पर्यायं चैकमश्रम ।
चिन्तयत्येकयोगेन यत्रैकत्वं तदुच्यते । एक द्रव्यमथाणु वा पर्यायं चिन्तयेद्य दि। योगकेन यदक्षीणं तदेकत्वमुदीरितम् ।। (ज्ञानार्णव में उद्धृत,
४,४२/२७) (ख) (भगवती आराधना, वि० टी० १८७७) (ग) (षट्खण्डागम १३/५/४/२६/६१-६३) (ध) तत्त्वार्थसूत्र ६/४४/४४५ (ङ) मूलाचार प्रदीप ६/२०८२ (च) हरिवंश पुराण ५६/६६-६८ (छ) सर्वार्थसिद्धि:/४४/४५६/४