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(२१२)मैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
इससे पहले वाले ध्यान में योगी का मन अर्थ व्यञ्जन योग में चिन्तन करते हुए एक ही आश्रय पर उलट फेर करता रहता था लेकिन स्थिर नहीं हो पाता था परन्तु इसके विपरीत इस ध्यान में वह उलट फेर बन्द हो जाता है और योगी का मन एक ही आलम्बन पर स्थिर हो जाता है । वह योगी पृथक्त्व रहित, वीचार रहित
और वितकं सहित एवं निर्मल एकत्व ध्यान को प्राप्त कर लेता है।+ इस शुक्ल ध्यान की साधना से साधक को एक विशेष प्रकार के उदात्त अनुभव की प्राप्ति होती है, उस योगी को सम्पूर्ण जगत् हस्तामलकवत् दीखने लगता है, क्योंकि इस ध्यान से केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है। केवलज्ञान इतना शक्तिशाली होता है कि इससे योगी सर्वज्ञ व त्रिकालज्ञ हो जाता है। इन्द्र, सूर्य, मनुष्य एव देवादि उसको पूजते हैं और वह अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि को प्राप्त करता है और वह शीलसहित पृथ्वी तल में विहार करते हैं । उनके वचनों को सभी प्राणी अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं, वे जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ-वहाँ खुशहाली एवं समृद्धि बढ़ती जाती है । + अपृथक्त्वमवीचारं सवितकं च योगिनः। . ____एकत्वमेकयोगस्य जायतेऽत्यन्तनिर्मलम् ।। (ज्ञानाणंव ४२/२६)
सम्प्राप्य केवलज्ञानदर्शने दुर्लभे ततो योगी । जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थम् ॥ (योगशास्त्र ११/२३) x (क) निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्ति पर्याये वा निरु
पाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रैकस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षण भाव थ तबलेन स्थिरी भूयावीचारं गुणद्रव्यपर्याय परावर्तनं न करोति ।...."। तेनैव केवलज्ञानोस्पत्तिः इति।
(वृहद्रव्यसंग्रह, टी० ४८/२००/३) (ख) आत्मलाभमथासाद्य शुद्धिचात्यन्तिकी पराम् ।
प्राप्नोति केवलज्ञानं तथा केवलदर्शनम् ॥ (ज्ञानार्णव
४२/३०) = वही ४२/३२-३३