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________________ शुक्ल ध्यान (२१३) उनको अनेक प्रकार की लब्धियाँ होती हैं लेकिन वे किसी भी प्रकार से उन सुखों को भोगने की इच्छा नहीं करते । वे तो जीवों को मिथ्यात्व से दूर कर मोक्ष मार्ग में लगाते हैं और इसी से उन्हें आत्मसन्तुष्टि की प्राप्ति होती है । जिन जीवों को तीर्थकर पद की प्राप्ति नहीं होती वे जीव भी अपने ध्यान के बल से केवलज्ञान को प्राप्त करके शेष आयु तक धर्म का उपदेश देते हुए अन्त में मोक्ष को प्राप्त करते हैं । + इस प्रकार से एक ही योग का आश्रय लेकर एक द्रव्य पर्याय ध्यान करने को एकत्ववितर्कअवीचार ध्यान कहा का शुक्ल गया है । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्ल ध्यान : इस शुक्ल ध्यान में सूक्ष्म क्रिया का अभिप्राय काययोग को सूक्ष्म करना है तथा अप्रतिपाती विशेषण इस बात को प्रगट करता है कि शुक्ल ध्यान में प्रवेश करके साधक वापस नहीं लोटता अर्थात् जब सर्वज्ञ की आयुकर्म अन्तर्मुहुर्त प्रमाण तक ही अवशिष्ट रहती है तब अघातिया कर्मों अर्थात् नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीनों की स्थिति आयु से अधिक हो जाती है और वह केवल ज्ञान रूपीसूर्य से पदार्थों को प्रकाशित करने लगता है तब वह सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती शुवल ध्यान के योग्य हो जाता है अर्थात् इससे पूर्व के शुक्ल X तीर्थंकर नामसंज्ञं न यस्य कर्मास्ति सोऽपि योगबलात् । उत्पन्न केवलः सन् सत्यायुषि बोधयत्युर्वीम् ।। (योगशास्त्र ११ / ४८ ) ध्यानस्तव १७-१६ (क) सुमम्मि कायजोगे, वट्टतो केवली तदियसुक्कं । झादि णिरुभिदु जे सुहमत्तं कायजोगंपि ।। (भगवती आराधना, वि० टी० १८८१) (ख) यदायुरधिकानि स्युः कर्माणि परमेष्ठिनः । समुद्यात विधिं साक्षात्प्रागेवारभते तदा ।। (ज्ञानार्णव ४२ / ४३) (ग) अन्तर्मुहुर्तशेषायुः स यदा भवतीश्वरः । तत्तुत्यस्थितिवेद्यादि त्रितयश्च तदा पुनः । समस्तवाङ मनोयोगं काययोगं च बादरम् । प्रहाप्यालम्ब्य सूक्ष्मं तु काययोगं स्वभावतः ॥ तृतीयं शुक्ल सामान्यात्प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानमा स्कन्तुमर्हति ॥ (हरिवंशपुराण ५६ / ६९-७१ (घ) चारित्रसार २०७/३ (ड.) राजवार्तिक ९ / ४४/१/६३५/१
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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