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(२०८) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
इसमें प्रथम दो शवल ध्यान छद्मस्थ अर्थात् अल्पज्ञानियों के लिए विहित है । उनमें श्र तज्ञानपूर्वक पदार्थ का आलम्बन होता है और अन्त के दो शक्ल ध्यान जो आलम्बन से रहित होते हैं, वे जिनेन्द्र देव को होते हैं । पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्ल ध्यान :
पृथकत्ववितर्कत्रीचार नामक ध्यान शुक्ल ध्यान का प्रथम चरण है। इस ध्यान में पृथक-पृथक रूप से वितर्क अर्थात् श्रत का वीचार अर्थात् श्रुतज्ञान बदलता रहता है इसलिए इसे सवितर्क सवीचार और सपक्त्व ध्यान कहा गया है । * यह ध्यान मन, काय और वचन इन तीन योगों वाले मुनियों के होता है । किसी एक वस्तु में उत्पाद, स्थिति और व्यय आदि पर्यायों का चिन्तन श्रत का आधार लेकर करना भी पृथक्त्व वितर्कवीचार शुक्ल ध्यान होता है । ... अर्थ, व्यञ्जन और योगों के संक्रमण का नाम वीचार कहा गया है । A x श्र तज्ञानार्थ सम्बन्धाच्छ, तालम्बन पूर्वके।
पूर्वे परे जिनेन्द्रस्य निः शोषालम्बनच्युते ।। (ज्ञानार्णव ४२/८) * (क) पृथकत्वेन वितकस्य वीचारो यत्र विद्यते।।
सवितर्क सवीचार सपृथक्त्वं तदिष्यते ।।(ज्ञानार्णव ४२/१३) (ख) दव्वाइ अणेयाइं तीहि वि जोगेहिं जेण ज्झायंति ।
उवसंतमोहणिज्जा तेण पुधत्तंति तं भणिया ।। (भगवती आरा
धना वि. टी १८७४) . (क) उप्पाय-ट्ठिइ-भंगाइपज्जयाण जमेगवत्थुमि ।
नाणानयागु सरणं पुव्वगयसुयाणुसारेण (ध्यानशतक ७७-७८) (ख) एकत्र पर्यायाणां-योगान्त रेषु संक्रमण-युक्तमाद्यं तत् ।। (योगशास्त्र
A (क) अत्थाण वंजणाण य जोगाण य संकमो ह वीचारो।
तस्स य भावेण तयं खुत्ते उत्तसवीचारं ।।(भगवती आराधना,
वि० टी० १८७६) (ख) अध्यात्मसार ५/६४-६७ (ग) पृथक्त्वं तत्र नानात्वं वितर्कः श्रु तमुच्यते ।
अर्थव्यञ्जन योगानां वीचारः संक्रमः स्मृतः।। (ज्ञानार्णव४२/१५)