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________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण (१७६) आदि पर निर्भर होता है । विशिष्ट ध्यान के द्वारा नियमपूर्वक एवं भली प्रकार से ध्यान करने पर अक्षर और पद प्रभावशाली, महत्वपूर्ण एवं रहस्यमयी होकर दिव्य ज्योति को प्रकट करते हैं इसीलिए ये मन्त्र कहलाते हैं । इन मन्त्रों का बार-बार उच्चारण करने से मन की चंचलता दूर होकर बिखरी शक्ति प्राप्त हो जाती है । इन मन्त्रों में बीजाक्षरों की शक्ति सूक्ष्म रूप से रहती है । इस प्रकार मन्त्रराज और अनाहत दोनों मन्त्रों के ध्यान के पश्चात् प्रणव नामक ध्यान को ध्याने के लिए कहा गया है। प्रणव ध्यान में 'ॐ" पद का ध्यान किया जाता है। भारतीय संस्कृति में "ॐ" का एक विशिष्ट स्थान है । सभी मोक्षवादी परम्पराये इसके महत्व को एकमत से मानती हैं । वैदिक परम्परा का तो ये प्राण ही है । प्रत्येक वैदिक मन्त्र में इसका होना जरूरी सा होता है, और तो और वैदिक ऋषि तो ब्रह्म को भी ॐकारमय मानते हैं। उनके मतानुसार ॐ शब्द ब्रह्म है । यह सारा जगत् ॐमय ही है । वैदिक परम्परा के अनसार ॐ शब्द "अ" "उ" "म" इन तीन अक्षरों के संयोग से सम्पन्न हुआ है । वहां 'अ' को ब्रह्मा, 'उ' को विष्णु तथा 'म' को महेश कहा गया है तथा ये तोनों शक्तियाँ इससे जुड़ी हुई मानी हैं। जैनाचार्यों ने ॐ को पंच परमेष्ठी वाचक माना है। उन्होंने अरहंत, अशरीरी-सिद्ध. आचार्य, उपाध्याय और मुनि, इन पाँचों परमेष्ठियों के प्रथम वर्ण लेकर सन्धि करने से "ॐ' को निष्पन्न माना है अर्थात् अ+अ+आ+उ+म=अ+अ+आ=आ। आ-+उ=ओ और ओम्=ओम या ॐ ऐसा माना गया है। कुछ जैनाचार्यों ने ॐ की निष्पत्ति इस प्रकार भी की है-"अ"-ज्ञान, "उ"-दर्शन, "म्"-चारित्र का प्रतीक है । इस प्रकार ये तीनों मिलकर अ+उ+ म= ओम या ॐ रूप बनता है। [क] अरहता-असरीरा-आयारिय-उवज्झाय-मुणिणो। पंचक्खरनिप्पण्णो ओंकारो पंच परमिट्ठी ।। [ख] हत्पंकजे चतुष्पत्रे ज्योतिष्मन्ति प्रदक्षिणम। अ-स-आ-उ साऽक्षराणिध्येयानि परमेष्ठिनाम् ॥ [तत्त्वानुशासन १०२)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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