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________________ [१७८]जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन यह मन्त्र राज सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, शान्तमूर्ति के धारक साक्षात श्री जिनेन्द्र भगवान के समान ही है । इस ध्यान में ध्याता यह कल्पना करता है कि एक सोने का कमल है और उसके मध्य में कणिका पर विराजमान, निष्कलंक, निर्मल चन्द्रमा की किरणों के समान, आकाशगामी एवं सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त "अह" मन्त्र है, वह उसी मन्त्र का स्मरण करता है । इसके पश्चात मुख कमल में प्रवेश करता हुआ, तालु छिद्र में गमन करता हुआ, अमृत से युक्त जल से झरता हमा, नेत्रपलकों पर स्फूरित होता हुआ, केशों में स्थिति करता हआ, ज्योतिष मण्डल में विचरता हआ, उज्ज्वल चन्द्रमा के साथ स्पर्धा करता हुआ, आकाश में उछलता, कलंक के समूह को छेदता, संसार के भ्रम को दूर करता हुआ तथा मोक्ष के साथ मिलाप करते हुए सम्पूर्ण अवयवों में व्याप्त कुम्भक के द्वारा इस मन्त्रराज "अहं" का चिन्तवन करना चाहिये।= इस मन्त्रराज के ध्यान से ध्याता एकाग्रता को प्राप्त होकर चित्त को स्थिर कर लेता है और उसी समय ज्योतिर्मय जगत को साक्षात देख लेता है । इस मन्त्र से ध्यानी अणिमादि सभी सिद्धियों को प्राप्त कर अलक्ष्य में अपने मन को स्थिर कर लेता है जिससे उसके अन्तरंग में इन्द्रियों से अगोचर ज्ञान प्रकट होता है। इसी को आत्मज्ञान कहते हैं।x ये सभी वर्ण एवं पद सर्वसाधारण के उपयोग में सदैव आते हैं परन्तु इनमें शक्ति और अतिशय लाना प्रयोक्ता, के भाव मन्त्रमूर्ति समादाय देवदेवः स्वयं जिनः । सर्वज्ञः सर्वगः शान्तः सोऽयं साक्षाव्यवस्थितः ॥ (ज्ञानार्णव ३८/१२) = (क) ज्ञानार्णव ३८/१६-१६ (ख) योगशास्त्र ८/१८-२२ x सिद्धयन्ति सिद्धयः सर्वा अणिमाद्या न संशयः । सेवां कुर्वन्ति दैत्याद्या आज्ञैश्वर्यं च जायते ।। क्रमात्प्रच्याव्य लक्ष्येभ्यस्ततोऽलक्ष्ये स्थिरं मनः । दधतोऽस्य स्फुरत्यन्तज्योतिरत्यक्षमक्षयम् ॥ (ज्ञानार्णव ३८/२७-२८)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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