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[२२७] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन उददेश्य मोक्ष को प्राप्त करना ही होता है वे मुनि इन लब्धियों के माया-मोह में नहीं पड़ते....क्योंकि वे जानते हैं कि उनका लक्ष्य शुद्ध आत्मतत्त्व की प्राप्ति करना है और लब्धियाँ उस साधना की फलसिद्धि हैं । जैसे-जैसे योगी का मन शुद्ध एवं निर्मल होता जाता है वैसे-वैसे ही उसमें समता, वैराग्य आदि भावनाओं का समावेश होता जाता है और वह सर्वज्ञ बन जाता है। इन विशिष्ट शक्तियों को जैनागमों (श्वेताम्बरों ग्रन्थों) में 'लब्धि' कहा गया है A, जबकि दिगम्बर ग्रन्थों में 'ऋद्धि' कहा गया है। वैदिक पुराणों में इन्हें 'सिद्धि' और पातञ्जल योगदर्शन में इन्हें 'विभूति' कहा गया है ।)
ध्यान साधना से प्राप्त इन विशिष्ट शक्तियों के द्वारा साधक असम्भव कार्य को भी सम्भव करने में सक्षम होता है। योगसाधना में वैदिक, जैन एवं बौद्ध सम्प्रदाय को परम्पराये मानी जाती हैं इसीलिए इन लब्धियों का वर्णन इन तीनों ही परम्पराओं से प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा में लब्धियाँ :
वैदिक परम्परा में अध्यात्म साधना में उपनिषदों का महत्व बहुत माना गया है और श्वेताश्वतर उपनिषद् में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लब्धियों से निरोगता, जरा मरण का अभाव, शरीर का हल्कापन, अरोग्य, विषयनिवृत्ति, शरीर कान्ति, स्वरमाधुर्य, मलमूत्र .... णो इहलोगट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा, णो परलोगट्ठाए तवमहिट्ठिज्जा । णो कित्तिवण्णसद्दसिलोगट्ठयाए, तवमहिट्ठिज्जा नण्णत्थ निज्जरट्ठयाए तवमहिट्ठिज्जा । (दशवैकालिक सूत्र ६/४) A गुणप्रत्ययो हि सामर्थ्य विशेषो लब्धिः । (आवश्यक मलगिरि
वृत्ति, अ० १) * श्रीमद् भागवतपुराण ११/१५/१ ॐ पातञ्जल योगसूत्र, विभूतिपाद, सूत्र ३