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________________ धर्मध्यान का वर्गीकरण(१५७) ऐसी आज्ञा को ग्रहण करने वाले विषयों का जो विचार विवेक या चिन्तन है वही आज्ञाविचय धर्मध्यान कहलाता है । २-अपाय विचय धर्म ध्यान : "अपाय" का अर्थ है दोष अथवा दुर्गुण, जिनसे सांसारिक जीव परेशान होता है और राग द्वेष, क्रोधादि कषाय, मिथ्यात्वादि ये सब दोषों के अन्तर्गत आते हैं। साधक इन से छटने का प्रयत्न करता है और चिन्तन करता है ऐसे चिन्तन करने को ही अपाय विचय धर्म ध्यान कहते हैं । → कर्मों के नाश का मुख्य साधन अप्रमत्त सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यग्चारित्र की त्रिपुटी या रत्नत्रय ही हैं इस ध्यान में कर्मों के आस्त्रव को रोकने का चिन्तन किया जाता है। x जीव के जो शुभाशुभ भाव होते हैं. उनका चिन्तवन करना भी अपायविचय धर्म ध्यान कहलाता है । ... सत्तका द्विविधो नयः शिवपथस्त्रेधा चतुर्धा गतिः । काया: पंच षडंगिनां चं निच याः सा सप्तभगीति च ।। अष्टौ सिद्ध गुणाः पदार्थनवकं धर्म दशांगं जिनः । प्राहैकादश देश संयतादशाः सवादशांगं तपः । सम्यकप्रेक्षा चक्षषा वीक्ष्यमाणो यद्यादक्षं सर्ववेद्याचचक्षे । तत्तादृक्षं चिन्तयन्वस्तु यायादाज्ञा धर्म्य ध्यानमुद्रां मुनीन्द्रः ।। (आत्म प्रबोध ८६-६०) → (क) रागद्दोस कसाया ऽऽसवादिकरियासु वट्ट माणाणं । इह-परलोयावाओ झाइज्जा व्रज्जपरिवज्जी ।। (घ्यानशतक५०) (ख) षटखण्डागम, धवला टी. १३/५/४/२६/३६-४० x श्रीमत्सर्वज्ञ निर्दिष्ट मार्ग रत्नत्रयात्मकम् । अनासाद्य भवारण्ये चिरं नष्टाः शरीरिणः ॥ मज्जनोन्मज्जनं शश्वद्भजन्ति भवसागरे । वराकाः प्राणिनोऽप्राप्य यानपात्रं जिनेश्वरम् ।।(ज्ञानार्णव ३४/२-३) .... (क) कल्लाणपावगाणउपाये विचिणादि जिणमदमुवेच्च । विचिणादि वा अवाए जीवाण सुभे य असुभे य ॥ (भगवती आराधना, विजयोदया टी० १७०७) (ख) मूलाचार प्रदीप ६/२०४६-४७ (ग) मूलाराधना ४००
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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