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(१५६) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
उन वचनों एवं उपदेशों को जान सुनकर साधक उन शब्दों के अर्थो को भली प्रकार समझता है और फिर उन तत्वों का सहारा लेकर वह उनसे साक्षात्कार करने का प्रयत्न करता है एवं उसकी साधना करता है। इसी साधना को "आणाए तवो, आणाय संजमो"+ कहा गया है । इसी प्रकार दूसरे सूत्र में उसे "आणाए मामथं धम्म" वाक्य के रूप में कहा गया है । ध्यानशतक में आज्ञा की विशेषता को दर्शाते हुए उसके लिए अतिशय निपुणा, अनादिनिधना, अना, अमिता, अजिता, महार्था बादि विशेषणों का प्रयोग किया गया है = उसी प्रकार आदिपुराण में भी उसे इसी प्रकार के विशेषणों से युक्त कहा है ... पाँच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, काल, द्रव्य तथा इसी प्रकार आज्ञा को ग्रहण करने वाले अन्य जितने भी पदार्थ हैं उनका आज्ञाविचय धर्म ध्यान के द्वारा साधक चिन्तन करता है x जिनेन्द्र भगवान जो उपदेश देते हैं या आज्ञा देते हैं उनका विषय अतिसूक्ष्म होता है उन्हें क्षायोपशमिक भावों के द्वारा जीव जान नहीं सकता अत: उसके लिए सर्वज्ञ भगवान की आज्ञा ही प्रमाण रूप होती है।
+ सम्बोधसत्तरि ३२
आचाराड्.ग ३/२ = ध्यानशतक ४५-४६ ... आदिपुराण २१/१३७-३८ x (क) पंचाथिकायछज्जीवकाइए कालदव्वमण्णे य ।
आणागेज्झे भावे आणाविचएण विचिणादि ।।
[षट्खण्डागम, धवला टी० १३/५/४/२६/३८ (ख) महापुराण २१/१३५-१४० (ग) भगवती आराधना, वि० टी० १७०६ A शास्त्रसार समुच्चय, पृ० २८८