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धर्मध्यान का वर्गीकरण(१५५)
१-आज्ञा विचय धर्म ध्यान :
'आज्ञा का अभिप्राय है कि किसी विषय को भली प्रकार से जानकर उसका भली प्रकार से आचरण करना लेकिन ध्यान के अर्थ में इसका अभिप्राय जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा से है और "विचय" का अर्थ हैविचार या चिन्तन करना । इस प्रकार आज्ञा विचय का अर्थ ध्यान में सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रधान मानकर उसके द्वारा बताये गये पदार्थों का भली प्रकार से चिन्तन करना चाहिये, ऐसा किया गया है । इस ध्यान में तीर्थकरों के द्वारा बतलाये गये उपदेशों का चिन्तन करते हुए साधक को उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए ऐसा सोचना चाहिए कि सर्वज्ञ की वाणी या उपदेशों में किसी भी प्रकार कोई त्रटि नहीं होती और न ही उसके वचन कभी असत्य होते हैं उस पर पूरी तरह से विश्वास करना चाहिये । * मति की दुर्बलता होने से, अध्यात्म विद्या के जानकार आचार्यों का विरह होने से, ज्ञेय की गहनता होने से, ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म की तीव्रता होने आदि इस प्रकार से सर्वज्ञ प्रतिपादित मत सत्य है, ऐसा सोचना चाहिये । + क्योंकि सर्वज्ञ वीतराग तीर्थंकर देव वस्तु को भली प्रकार से प्रत्यक्ष में देखकर ही और जानकर ही उसका उपदेश देते हैं अतः वह हमारे हितकर ही होते हैं।.... A सर्वज्ञाज्ञां पुरस्कृत्य सम्यगर्थान् विचिन्तयेत् । __ यत्र तद्धयानमाम्नातमाज्ञारव्यं योगि पुड्.गवैः ।। (ज्ञानाणंव ३३/२२) * आज्ञायत्र पुरस्कृत्य सर्वज्ञानामबाधितम् । तत्वतश्चिन्तयदस्तिदाज्ञा-ध्यानमुच्यते ।। सर्वज्ञवचनं सूक्ष्म हन्यते यन्न हेतुभिः । तदाज्ञारुपमादेयं न मृषा भाषिणो जिनाः॥ (योगशास्त्र १०/८-६) + षट्खण्डागम, धवला टी. पृ० १३, ५/४/२६/३५-३६ .... प्रमाणीकृत्य तीर्थेशान् सर्वज्ञान दोषदूरगान्।
तत्प्रणीतेषु सूक्ष्मेषु विश्वदृग्गोचरेषु च ॥ लोकालोकादितत्त्वेषु धर्मेषु मुक्ति वर्त्मसु । रुत्ति: श्रद्धा प्रतीतिर्या तदाज्ञाविचयंसताम् ॥ (मूलाचार प्रदोप ६०२०६२-६३)