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(१५८)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
- आदिपुराण में "अपाय" को अभाव कहा जाता है, मिथ्यादष्टियों के मार्ग के अभाव का विचार करने को अपायविचय धर्म ध्यान कहा है । + मन, वचन, काय इन तीनों की योग की प्रवृत्ति को संसार का कारण माना गया है । अत: इन प्रवृत्तियों से कैसे छ टकारा पाया जा सकता है, इस प्रकार का विचार अपाय विचय ध्यान ही कहलाता है । * इस ध्यान में यह. भी विचार किया जाता है कि मिथ्यात्व के वशीभूत होकर राग द्वेष में लिप्त हुए प्राणी जो दुख या कष्ट उठा रहे हैं और जन्म-मरण के भव में पड़ हुए हैं उनसे कैसे छुटकारा हो सकता है । - साधक इस ध्यान में सभी दोषों को जानता और समझता है और उनसे बचने का उपाय निरन्तर करता रहता है और नये कर्म किम उपाय से नहीं बंधेगे, ऐसे उपायों को करता रहता है और आत्मा की सिद्धि के लिए निश्चय कर लेता है । ... यही अपायविचय धर्म ध्यान कहलाता है । + आज्ञाविचय एवं स्यादपायविचयः पुनः ।
तापत्रयादि जन्माब्धिगतापार्या विचिन्तनम ॥ तदपाय प्रतीकार चित्रोपायानुचिन्तनम् । . अत्रैवान्तगति ध्येयमनुप्रेक्षादि लक्षणम् ।। (आदिपुराण २१/१४१-४२) * संसारहेतवः प्राय स्त्रियोगानां प्रवृत्तयः।
अपायोयर्जन तासां स मे स्यात्कथमित्यलम् ।। चिन्ताप्रबन्ध संबन्धः शुभलेश्यान जिता। अपायविचयाख्यं तत्प्रथम धर्म्यमभीप्सितम्।।(हरिवंशपुराण५६/३६-४०) (क) रागद्वेषकषायाद्यैर्जायमानान् विचिन्तयेत् ।
यत्रपायांस्तदपाय-विचय-ध्यानमिष्यते ।। (योगशास्त्र १०/१०) (क) कथं मागं प्रपद्यरत्नमी उन्मार्गतो जनाः ।
अपायमिति या चिन्ता तदपायविचारणम् ।।(तत्वार्थसार ४१) (ख) इत्युपायो विनिश्चेयो मार्गाच्यवनलक्षणः ।
कर्मणां च तथापाय उपायश्चात्मसिद्धये ॥ (ज्ञानार्णव ३४/१६) । ग) चारित्रसार १७३/३ (घ) मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः कथं नाम इमे प्राणिनोऽपेयुरिति
स्मृतिसमन्वाहारोऽपाय विचयः। [सर्वार्थसिद्धि ९/३६/४४६/११]