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भारतीय परम्परा में ध्यान (२६)
सद्योयान, २- वामदेव, ३- अघोर, ४- ईशान्य, तथा ५- तत्वांश+
शैवधर्म के तत्व को चार भागों में विभक्त किया गया है । वे चारों तत्व इस प्रकार से हैं-१-ज्ञान, २- क्रिया, ३- चर्या तथा ४- योग । कुण्डलिनी शक्ति की साधना शैवागमों का प्रिय विषय रहा है । कुण्डलिनी शक्ति को वे आधार शक्ति मानते, थे जिसमें संकोच और प्रसार की क्रियायें होती हैं। ये क्रियायें ऊध्वं गति और अधोगति को पहचाने वाली हैं। कुण्डलिनी जागरण-आसन, प्राणायाम, मलशोधन, नाड़िशोधन आदि सब कुछ स्वतः ही हो जाता है एवं शिव शक्ति का सामंजस्य भी हो जाता है इसी को परब्रह्म में लीन होना कहते हैं ।- यहां पर जीव को सामान्य तया पशु के समान माना गया है. जो तीन मलों से आवृत है । ये तीन मल आणव, माया और कर्म हैं। A साधक का इन मलावरणों को हटाकर स्वरूप को प्राप्त होना ही मोक्ष कहलाता
परमार्थ सार में शिवयोगी के लिए समाधि उत्थान को जरूरी नहीं बतलाया गया अपितु वह स्वयं शिवस्वरूप में स्थित होता है। + तन्त्रालोक, कण्ठसंहिता, भाग १, प० ३७-३८
पशुपाशपतिज्ञानं ज्ञानमित्यभिधीयते । षडध्वशद्धिविविना गुवो धीना क्रियोच्यते ।। वर्णाश्रमप्रयुक्तश्चमयैव विहितस्य च । चर्चिनादि धर्मस्य चर्याचर्येति कथ्यते ॥ यदुक्तेनैव मार्गेण मययवस्थितचेतसः ।। वृत्यन्तरनिरोधोयो योग इत्यभिधीयते ।। (पाशपत सिद्धांते, उद्धृत शैव दर्शन तत्व, ८४) = आसनाभ्यसनं लक्ष्य प्राणायामद्वितीयकम्। मलसंशोधनं नाडिचक्रे चक्रविभेदनम् ।। शम्भो वियुक्ता या शक्तिः शाम्भवी दिव्यरूपिणी। तत्संयोगः परं लक्ष्यं पर ब्रह्मणि लीनता ।। (सिद्धामृत कु०मयो.) A आणव-मायीय-कर्ममलावृतत्वात् त्रिमयः। (प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, प. १५) * तन्त्रालोक १/६२