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[३०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
इसके अनुसार साधना की अनभूति को विशेष स्थान प्राप्त है !... चित्त वृत्ति के निरोध को योग कहते हैं। इस मत को सभी शैवागमों ने अपनाया है। इन्होंने परमात्मा के पाँच कृत्य माने हैं-१ सष्टि २~ स्थिति, ३- संहार, ४- अनुग्रह तथा ५- विलय ।* इन कृत्यों को निरन्तरता अव्याहत है। यह वस्तुतः परमात्मा का ही खेल है । इससे जीव अपने में अभाव का बोध करता है एवं उसमें स्वरूप बोध की आन्तरिक इच्छा बलवती होती है। सुप्त या सोयी हुई शक्ति का शिव से मिलन ही योग है। पातञ्जल योगदर्शन में ध्यान:
योग साधना में महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्र का स्थान सर्वोपरि है। योग प्रक्रिया का वर्णन करने वाले जितने भी छोटे बड़े ग्रन्थ हैं, उन सबमें महर्षि पतञ्जलि के योगदर्शन का आसन ॐचा है। श्री शंकराचाय ने अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में योगदर्शन का प्रतिवाद करते हुए जो 'अथ सम्यग्दर्शनाभ्यपायो योगः' ऐसा उल्लेख किया है । A पातञ्जल योग सांख्य सिद्धान्त की नींव पर खड़ा है। महर्षि पतञ्जलि का योगसूत्र चार पादों में विभक्त है। प्रथम पाद का नाम समाधि पाद है जिसमें योग के लक्षण, स्वरूप तथा उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन है। द्वितीय पाद का नाम साधनापाद है जिसमें दुःखों के कारणों पर प्रकाश डाला गया है। तृतीय पाद जिसका नाम विभूतिपाद है, में धारणा, ध्यान एव समाधि का वर्णन किया गया है तथा चतुर्थ कंवत्यपाद में चित्त के स्वरूप का वणन किया गया है । इसमें ध्यान की परिभाषा एक सत्र में ही वणित है, वहाँ एक ही ध्येय में एकतानता, चित्त वृत्ति का एकरूप तथा एक रस बने रहना ध्यान है।+
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.... परमार्थसार ५६-६० X शव दर्शन तत्त्व, प० ८५ * तथापि तद्वत् पंचकृत्यानि करोति ।
सष्टि संहारकर्तारं बिलय स्थिति कारकम ।
अनुग्रहकरं देवंप्रणताति विनाशनम् । (प्रत्यभिज्ञाहृदयम्, पृ० ३२) - A अहह्मसूत्र २-१-३ भाष्यगत।
+ तत्र प्रत्ययकतानता ध्यानम् । योगसूत्र ३/२