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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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है १- निश्चय, २- व्यवहार । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र और सम्यग्दर्शन का आत्मा के साथ के सम्बन्ध को 'निश्चय योग' कहा है और उक्त तीनों के कारणों-साधनों को 'व्यवहार योग' कहा है।
साधक जिस भूमिका पर स्थित है, उससे ऊपर की भूमिकाओं पर पहुंचने के लिए उसे क्या करना चाहिये इसके लिए योगशतक में कुछ नियमों एवं साधनों का वर्णन किया है । इनमें शयन, आसन आहार तथा योगों से प्राप्त लब्धियों का भी वर्णन है। इस तरह योग का स्वरूप, योगाधिकार के लक्षण एवं ध्यान रूप, योगाधिकार के लक्षण एवं ध्यानरूप योग अवस्था का सामान्य वर्णन जैन परम्परानुसार किया गया है। योगविशिका:___ यह बीस गाथाओं की छोटी सी रचना है। जिसमें संक्षिप्त रूप में योग की विकसित अवस्थाओं का निरूपण है । इसमें चारित्र शील एवं आचारनिष्ठ साधक को योग का अधिकारी माना है और उसकी धर्म-साधना या साधना के लिए की जाने वाली आवश्यक धर्म-क्रिया को 'योग' कहा है। उसकी पाँच भूमिकायें बतलाई हैं १. स्थान, २- ऊर्ण, ३- अर्थ, ४- आलम्बन, ५. अनालम्बन । प्रस्तुत ग्रन्थ में इनमें से आलम्बन और अनालम्बन की व्याख्या की है। प्रथम तीन भेदों की मूल व्याख्या नहीं की गई है। परन्तु उपाध्याय यशोविजय जी ने योगविशिका की टीका में पाँचों का अर्थ किया है।+ इनमें से प्रथम के दो भेद को कर्मयोग और के तीन भेदों को ज्ञान योग कहा है। इपके अतिरिक्त स्थान आदि पाँच भेदों के इच्छा, प्रवृत्ति, स्थर्य और सिद्धि ये चार-चार भेद करके उनके उनके स्वरूप और कार्य का वर्णन किया है। षोडशक:
इस ग्रन्थ के कुछ ही प्रकरण योग विषयक हैं। ग्रन्थ के चौहदवें प्रकरण में योग-साधना में बाधक खेद, उद्वेग, क्षेप, उत्थान, भ्रान्ति अन्यमुद, रुग् ओर आसंग इन आठ चित्त दोषों का वर्णन किया गया है सोलहवें प्रकरण में उक्त आठ दोषों के प्रतिपक्षी अद्वेष, जिज्ञासा, . + योगविशिका, यशोविजय टीका ३