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(१३० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन पंचम गुणस्थान तक के जीवों के ही होता है।A सर्व विरति मुनि को यह रौद्र ध्यान इसलिए नहीं होता क्योंकि वह हिमादि पापों से मन वचन काया से प्रतिज्ञाबद्ध होकर सर्वथा विरमित है। वह कभी प्रमाद के कारण आत्तध्यानी तो हो सकता है लेकिन रौद्रध्यानो नहीं हो सकता । मिथ्यादष्टि जीवों को तो सच्चे तत्व एवं श्रद्धा का पता नहीं होता इसलिए वह इस रौद्रध्यान में फंस जाता है । वैसे ये ध्यान चाहे किसी के भी हो परन्तु, यह ध्यान प्रशंसनीय नही होता, यह सर्वथा त्यागने योग्य है। रौद्र ध्यान और लेश्या एवं भाव
यह रौद्रध्यान अत्यन्त अशुभ है। इसमें कापोत, नील एवं कृष्ण ये तीन अतिशय खोटी एव अशुभ लेश्यायें हआ करती हैं।+ यह रौद्र ध्यान कृष्ण लेश्याओं के बल से संयुक्त है । यह क्षायोपशमिक भाव से युक्त है एवं इसका काल अन्तमुहर्त पर्यन्त है।= यह ध्यान खोटी वस्तुओं पर ही होता है। इसमें भाव लेश्या और A (क] रौद्रध्यान तारतम्येन मिथ्यादृष्टि आदिपञ्चम गुणस्थानतिजी
वसंभवम् । [द्रव्यसंग्रह टीका २०१/) (ख) सर्वार्थसिद्धि ६/३५/४४८) (ग) आदिमे च गुणस्थानेत्रदुतकृष्ट मंजसा ।
जघन्यं पंचमेस्याद्वित्रिचतुर्थे च मध्यमम्।।
]मूलाचार प्रदीप ६/२०३८) । +प्रकृष्ट तरदुर्लेश्यात्रयोपोद्बवृलंहितम् ।। ___ अन्तमुहतंकालोत्थं पूर्ववद्भाव इष्यते ॥ (महापुराण २१/४४)
क] कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वभ्रपातर्फलाडि.कतम् । (ज्ञानार्णव २६/३६) [ग] कावोय-नील-काला लेसाओ तिव्वसंकलिठाओ।
रोदज्झामोवगयस्स कम्मपरिणामणियाओ।। [ध्यान शतक
२५) = (क) ज्ञानार्णव २६/३६) (ख] उत्कृष्टाशुभलेश्यात्रयावला धानमस्य च ।
भाव औदयिको निद्यःक्षायोपशमिकोथवा ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०३६)