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रौद्र
ध्यान (१२ε
है, परस्त्री पर अतिक्रमण करता हैं।
ध्यान शतक में
रौद्रध्यान के
दोष बतलाये
वाह्य करण-वचन और काय से रौद्रध्यानी जीव के चार गये हैं। जो इस प्रकार हैं - उत्सन्न दोष, बहुलदोष नानाविध दोष और आमरण दोष । इस प्रकार से इन वाह्य लक्षणों से रोद्र ध्यानी का पता चल जाता है । महापुराण में चारों रौद्र ध्यानों के अलग-अलग लक्षण बतलाये गये है । *
रौद्रध्यान में गुणस्थान एवं स्वामी
यह रौद्र ध्यान अविरत और देशविरत के होता है ।... यह ध्यान छठे गुणस्थान के पहले पाँच गुणस्थानों में होता है । यह रौद्र ध्यान पाँच गुणस्थानवर्ती भावकों के मन द्वारा होता है, प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों में वह नहीं होता । यह केवल मिथ्यादृष्टि से परानुमेयं परुष निष्ठुराक्रोशन निर्भत्र्सन बन्धनतर्जन ताडन पीडन परदारातिक्रमणादि लक्षणम् । ( चारित्रसार १७० /१) 4 (क) लिंगाई तस्स उस्सण्ण - बहुल - नाणाविहारऽऽमरणदोसा | तेसि चिय हिसाइ बाहिरकरणोवउत्तस्स || ( ध्यान शतक २६)
(ख) रौद्रकर्म भवं रौद्रकर्म भाव निबन्धनम् ।
रौद्रदुःखकरं रौद्रगति रौद्रद योगजम् ॥ ( मूलाचार प्रदीप ६/२०३६२०४०]
[( ग ) रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं० तं०-ओसण्ण दोसे बहुद से अन्नादोसे आमरणदोसे ( स्थाना. ग, पृ० १०८
* महापुराण २१/४९-५३)
रौद्रमविरत देश विरतयो: । ( तत्वार्थ सूत्र ९ / ३५]
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X ( क ) स्यात्पञ्चगुण भूमिकम् । (ज्ञानार्णव २६ / ३६)
(ख) षष्ठात्तु तदगुणस्थानात् प्राक् पञ्चगुण भूमिकम् । [महापुराण २१ / ४३ )
(ग) चारित्रसार १७१ / १)
* इंय करण - कारणाणुमइ विसंयमणु चितणं चउब्भेयं ।
अविरय-देसासंजय जण मणसंसेवियमहण्णं ॥ ( ध्यान शतक २३ )