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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन [१२८]
नन्द रौद्र ध्यान है ।* ऐसा जीव कामभोग के साधन आदि सांसारिक वैभव के संचय और संरक्षण में सदा व्यस्त रहता है और हमेशा उनका ही चिन्तवन करता रहता है।+ यह भी अनिष्ट है-और आत्महितैषी सत्पुरुष उसकी कभी भी इच्छा नहीं करता। रौद्रध्यान के बाह्य लक्षण
__आचार्यों ने क्रूरता, दण्डकी, परुषता, वञ्चकता, कठोरता, निर्दयता ये रौद्रध्यान के बाह्य चिन्ह बतलाये हैं। इसमें उसके अग्नि के समान लाल नेत्र हो जाते हैं, भोहें टेढ़ी हो जाती है, वह जीव कंपित देह वाला हो जाता है उसकी आकृति भयानक हो जाती है । वह कठोर बोलता है, तिरस्कार करता है, ताड़न करता *(क] बहृवारम्भ परिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते,
यत्सकल्पपरम्परां वितनुते प्राणीह रौद्राशयः । यच्चालम्ब्य महत्वमुन्नतमना राजेत्यह मन्यते, तत्तुर्य प्रवदन्ति निमलधियो रौद्रं भवाशंसिनाम् ।। [ज्ञानार्णव
२६/२६) [ख] सदाइविसयसाहणधणसारक्खण परायणमणिठें ।
सत्वाभि संकणपरोवघायकलसाउलं चित्तं ।। [ध्यानशतक २२) (ग) चेतनाचेतन लक्षणे स्वपरिग्रह ममेवेदं स्वम हमेवास्य स्वामीत्य
भिनिवेशात्तदपहारकाव्यापादनेन संरक्षणं प्रति सकल्पाध्यवसानं संरक्षणानन्दं चतुर्थं रोद्रम् ।
[चारित्रसार १७०/२] + मदीया -स्तुसद्राज्यरामसेनादि सम्पदः ।
यो हरेत्त दुरात्मानं हन्मि पौरुषयोगतः ॥ इतिस्ववस्तु रक्षायांसंकल्प करणंहृदि । दुधियां तत्समस्तं विषयसरक्षणाभिधम् ॥ (मूलाचार प्रदीप
६/२०३१-३२) विस्फुलिड.गनिभे नेत्रे वका भीषणाकृतिः । कम्पः स्वेदादिलिड्.गानि रोद्रे बाह्यानि देहिनाम् ॥ [ज्ञानार्णव २६/३८)