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जन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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हरिभद्र सूरि ने जैन आगमों के आधार पर योग की जो व्याख्या और विषय-विभाग तथा उसमें जिस विशिष्ट पद्धति का अनुसारण किया है वह दार्शनिक जगत् में बिल्कुल नई वस्तु है। उनके लिखे हए योग विषयक ग्रन्थ-योग बिन्दु, योग दृष्टि समुच्चय, योग विशिका, योगशतक और षोडशक इसके ज्वलन्त प्रमाण है। उक्त ग्रन्थों में ये केवल जैन परम्परा के अनुसार योग-साधना का वर्णन करके ही सतुष्ट नहीं हए, बल्कि पातञ्जल योग-सूत्र में उसकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन साधना एवं परिभाषाओं की तुलना करने एवं उसमें रहे हए साम्य को बताने का भी प्रयत्न किया।+
आचार्य हरिभद्र के योगविषयक मुख्य चार ग्रन्थ हैं १- योगबिन्दु, २- योगदृस्टि समुच्चय. ३- योग शतक, ४- योगविशिका। इनमें प्रथम दो ग्रन्थ संस्कृत में हैं और अन्तिम दो ग्रन्थ प्राकृत भाषा में हैं। योगबिन्दु:
. हरिभद्र के इस ग्रन्थ में ५२७ संस्कृत पद्य हैं, प्रस्तुत ग्रन्थ में सर्वप्रथम योग के अधिकारी का वर्णन किया गया है, जो दो प्रकार के होते हैं..चरमावर्ती तथा अचरमावर्ती। जिस जीव का काल मर्यादित हो गया है, जिसने मिथ्यात्व ग्रन्थि का भेदन कर लिया है, जो शक्ल पक्षी हैं वही चरमावर्ती मोक्ष का अधिकारी है । इसके विपरीत जो विषय वासना में और काम भोगों में आसक्त बने रहते हैं वे अचरमावर्ती जीव योग मार्ग के अधिकारी नहीं हैं। विभिन्न प्रकार के जीव के भेदों के अंतर्गत, १- अपुनबंधक, २- सम्यग्दष्टि, ३- वेशविरति और ४- सर्वविरति की चर्चा की गई हैं। चारित्र के वर्णन में आचार्य श्री ने पाँच योग-भूमिकाओं का वर्णन किया है १- अध्यात्म, २. भावना ३- ध्यान. ४- समता और ५-वृत्तिसंक्षय । इन्होंने प्रस्तुत ग्रन्थ में पाँच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया है १- विष, २- गर, ३- अननष्ठान + समाधिरेष एवान्यः संप्रज्ञातोऽभिधीयते ।
सम्बप्रकर्षरूपेण वृत्यर्थ-ज्ञानतस्तथा ।। असंम्प्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः। निरूद्धाशेषवृत्यादि तत्स्वरूपानुवेधतः । (योगबिन्दु, ४१८, ४२०). वही ३५७-३७०