________________
ध्यान का भद (११६)
चालाक समझकर यह छपाये कि उसे आर्त ध्यान नहीं होता किन्तु उसके दिल में स्थित आत्तं ध्यान नहीं होता, किन्तु उसके दिल में स्थित आत्तं ध्यान का पता उसके बाह्य चिह्नों से हो जाता है, जैसे आत ध्यान से पीड़ित व्यक्ति सबसे पहले तो शंकाल होता है फिर उसको शोक व भय से प्रमाद तक होने लगता है, उसका चित्त एक जगह नहीं ठहरता । वह विषयी हींकर हर वक्त सोने लगता है, उसका शरीर धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगता है ।... वह जीव निरन्तर आक्रन्द, शोक, क्रोध आदि क्रियायें करता है। जो इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग तथा वेदना के कारण होते हैं। वह जोर-जोर से चिल्लाकर छाती पीट-पीट कर रोता है, आँसू बहाता है, बाल नोचता है एवं वाणी से दिल का गुस्सा उतारता है। वह परिग्रह में. अत्यन्त आसक्त होकर एव लोभी होकर, शोक करता हुआ अपनी जीविका चलाता है।* उसका शरीर क्षीण पड़ जाता है व मूच्र्छा आती है, शरीर की कान्ति नष्ट हो जाती है। इस प्रकार से इन अनेक बाह्य लक्षणों से आत्तं ध्यान का पता चल जाता है । जिसे केवल अपनी ही आत्मा जान सके वह आध्यात्मिक आत्तं ध्यान कहलाता है और जिसे अन्य लोग अनुमान कर सके बाह्य आर्त कहलाता ... ज्ञानार्णव २५/४३ x तस्सऽक्कंदण-सोयण-परिदेवण-ताडणाई लिंगाई। इट्ठा ऽणिविओगाऽविओग-वियणानिमित्ताई। (ध्यानशतक १५-१७) * मूर्छा कौशोल्यकेनाश्यकोसोद्यान्यति ग्ध्नुता। भयोटे गानुशोकाच्च लिड्.गान्या स्मृतानि वै ॥ .. बाह्यं च लिड्.गमात्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। हस्तान्यत्कपोलत्वं साथ तान्यच्च तादृशम् ॥ (महापुराण २१/४०-४१] A (क) चारित्रसार १६७/४ . (ख) अट्टस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पं (पण्णत्ता) तं० (तं
जहा] कंदणता सोचणता तिप्पणता परिदेवणता। (स्थानाड्ग टी. पृ० १६)