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(१२० ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
है। +
आर्त ध्यान और गुण स्थान एवं स्वामी
आत्तं ध्यान चारों भेदों सहित छठे गुणस्थान तक हो रहता है। आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि टीका में कहा है कि आवरतो - असंयत- सम्यग्दृष्टि तक और देशविरतों के ही आतं ध्यान होता है, क्योंकि वे सब असंयमी होते हैं |
हरिवंश पुराण में छह गुण स्थानों तक छह भूमि वाला आतं ध्यान माना गया है । 4 ज्ञानार्णव में भी छह गुण स्थान तक ही आतं ध्यान माना है लेकिन संयतासंयतनामा पाँचवें गुणस्थान तक तो चार भेद सहित रहता हैं किन्तु छठे गुण स्थान में निदान रहित तीन प्रकार का ही रहता है । *
तत्वार्थवार्तिक में कहा गया हैं कि निदान को छोड़कर शेष तीन ध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रता से प्रमतसंयतों के कभी-कभी होते हैं, निदान प्रमत संयतों के नहीं होता है। X मूलाचार, स्थाना.ग समवायांग और औपपातिक सूत्र में से किसी में भी ध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया गया है। ध्यान शतक में भी अविरत - मिथ्यादृष्टि व असंयत्तसम्यग्दृष्टि, देशविरतों के ही आर्त ध्यान होता है + स्वसंवेद्याध्यात्मिकात्तध्यान । ( चारित्रसार १६७ / ५ ]
(क) तदविरत - देशविरत प्रमत्तसंयतानाम् । [ तत्वार्थ सूत्र ९ / ३४) [ख) महापुराण २१/३७
- तत्राविरत - देशविरतानां चतुविधमार्तं भवति, असंयमपरिणामोपेतत्वात् प्रमत्तसंयतानां तु निदानं वज्यंमन्यदातंत्रयं प्रमादोदयोद्र ेकात् कदाचित् स्यात् । ( सर्वार्थसिद्धि ६ / ३४ )
4 अधिष्ठानं प्रमादोऽस्य तिर्यग्गतिफलस्य हि ।
परोक्षं मिश्रको भाबः षड्गुणस्थान भूमिकम् || ( हरिवंश पुराण ५६/१८)
* ज्ञानार्णव २५ / ३८-३६
X कदाचित् प्राच्य मार्तध्यानत्रयं
प्रमात्तानाम् । निदानं
वर्जयित्वा
अन्यदात्तत्रयं प्रमादोदयोद्रकात् कदाचित् प्रमत्तसंयतानां भवति । [ तत्वार्थ वार्तिक ३ / ४१/१)