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________________ ध्यान का भेद (१२१) ऐसा कहा गया है और मुनिजनों के लिए यह सर्वथा त्याज्य है।.... आत ध्यान और लेश्या__ आत ध्यान अशुभ और अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आता है इसलिए यह अशुभ होने के कारण अशुभ लेश्या वाला ही होता है । इसके कुष्ण, कापोत और नील ये तीन अशुभ लेश्यायें होती हैं जो पाप रूप अग्नि में ईधन के समान होती हैं। जीव के कर्मों से उदित हई ये तीनों लेश्यायें अत्यधिक संक्लिष्ट नहीं होतों । जितनी वे रौद्र ध्यान में अपने अत्यधिक रूप में रहती है, उतनी वे आत ध्यान में प्रभावशाली नहीं होकर हीन रूप से विद्यमान रहती है हैं ।* इन्हीं अशुभ लेश्याओं पर आश्रित होकर अशुभ आत ध्यान उत्पन्न होता आत ध्यान का फल संसार कर्म बन्धन के कारण खड़ा होता है । आर्त ध्यान से कर्मों का क्षय नहीं होता अपितु कर्मों का बन्धन बढ़ता है और कर्मों का बन्धन बढ़ने से संसार की वृद्धि होती है, वह माया मोह के चक्कर में पड़ जाता है एवं जन्म-मरण के भव सागर में चक्कर लगाता है ये सब ही आत ध्यान के फलस्वरूप होता है और यही आत्त ध्यान का सामान्य रूप से फल है लेकिन इस फल के अलावा आत ध्यान का एक विशेष फल तिर्यंचगति है।+ तिर्यंचगति अनन्त दुखों से व्याप्त .... तदविरय-देसविरया-पमायपरसंजयासणुगं झाण । ___ सबप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं ।। (ध्यान शतक १८) x कृष्णनीलाद्यसल्लेश्याबलेनज प्रविम्भते । इदं दुरितदावाचिः प्रसूतेरिन्धनोपमं ॥ (ज्ञानार्णव २५/४०) * कावोय-नील-कालालेस्साओ पाइसंकिलिट्ठाओ। ___अट्टज्झाणोवगयस्स कम्मपरिणामजणिआओ॥ [ध्यान शतक १४) A (क) अप्रशस्ततमं लेश्या त्रयमाश्रित्य जम्भितम् । अन्तर्मुहूर्त कालं तद् अप्रशस्तावलम्बनम् ।। (महापुराण २१/३८ (ख] चारित्रसार १६९/३ + एयं चउविहं राग-दोस-मोहं कियस्स जीवस्स । अट्टज्झाणं संसार वखणं तिरियगइमूलं ।। (ध्यान शतक १०)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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