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(१२२) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
होती है, यह भाव क्षयोपशमिक है इसका काल अन्तमूहर्त हैं । यह आर्त ध्यान एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रय एवं पंचेन्द्रिय तियंचगति के योग्य कर्म बंध करवाता है । आत ध्यान अत्यन्त अशुभ, दुखों से व्याप्त एवं समस्त क्लेशों से भरा हुआ होने के कारण संसार के बन्धन का हेतु माना गया है।
अनन्तदुःखसंकीर्णमस्य तियंग्गतेः फलम् ।
क्षायोपशमिको भाव: कालश्चान्तमुहूर्तकः ॥ (ज्ञानार्णव २५/४२] .- (क) सर्वार्थसिद्धि ६/२६
(ख] तियंग्भवगमनपर्यवसानम्। (राजवार्तिक ६/३३/१/६२६ (ग) हरिवंशपुराण ५६/१८ (घ] चारित्रसार १६६/४ E] विश्वसंक्लेशंसपूर्ण तिर्यग्गतिकरं फलम् । मिथ्यादृशामति क्लेशात्सदृष्टीनां च तद्व्ययात् ॥ [मूलाचार प्रदीप ६/२०१६)