________________
(४०) जैन परम्परा में ध्यान : एक समीक्षात्मक अध्ययन
हैं जिनमें प्रारम्भ के तीन प्रशस्त तथा शेष अप्रशस्त हैं । इसमें ध्यान के चार प्रकार बतलायें हैं और उनके भेद-प्रभेदों का भी वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ पर संस्कृत प्राकृत और हिन्दी की कितनी ही टीका टिप्पणियाँ लिखी गई है जिनमें 'अराजित सरि' कृत' विजयोदया' टीका काफी ख्याति प्राप्त है। स्थानाड़.ग सूत्र:
आचारादि बारह अड्.गों में स्थानाड़.ग तीसरा अंग है । वर्तमान में वह जिस रूप में उपलब्ध है उसका संकलन वल भी बाचन। के समय देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के तत्वावधान में वीर निर्वाण के बाद १८० वर्ष के आसपास हुआ है। उसमें दस अध्ययन या प्रकरण है, जिनमें यथाक्रम से १.२, ३ आदि १० पर्यन्त पदार्थों व क्रियाओं का निरूपण किया गया है । जैसे प्रथम स्थानक में एक आत्मा है एक दण्ड है, एक किया है, एक लोक है; इत्यादि ।+
चौथे स्थानक में ४-४ पदार्थों का निरूपण किया गया है तथा चार प्रकार के ध्यान का भी वर्णन किया है तत्पश्चात् उनमें से प्रत्येक के भी चार-चार भेदों का वर्णन है। औपपातिक सूत्र:
यह ग्रन्थ स्थानाड्.ग सूत्र से काफी मिलता-जुलता है। ध्यान विपयक जो सन्दर्भ स्थानाड.ग में प:या जाता है वह सब प्रायः शब्दशः उसी रूप ओपपातिक सूत्र में भी उपलब्ध होता है। उनमें साधारण शब्द भेद व क्रम भेद है । ध्यान शतक:
___ ध्यान शतक एक अति प्राचीन ग्रन्थ है। इसके रचियता जिनभ्द्रगणि क्षयाश्रमण है । यह ग्रन्थ आगम शैली में लिखा गया है इस पर 'हरिभद्र सूरि' की टीका भी है । इस ग्रन्थ के रचियता के सम्बन्ध में कुछ मतभेद है। श्री पं० दलसुखभाई मालवणिया का मन्तव्य है कि ध्यान शतक के रचियता के रूप में यद्यपि जिनभद्र गणि से नाम का + एगे आया। एगे दंडे । एगा किरिया । एगे लोए। (स्थानाड्.ग १, सूत्र १-४) औपपातिक २०, पृ० ४३