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(२२५) नैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन क्षय हो जाता है यहाँ पर उसके विशुद्ध यथाख्यात चारित्र हो जाता है। रागद्वेष आदि कोई भी विकार नहीं रह पाता । इसीलिए वह साधक वीतराग हो जाता है। लेकिन कभी क्षय हुआ सूक्ष्म लोभ कषाय दुबारा से उदय हो जाता है, जिससे उपशान्त कषाय वाला साधक वापस सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान में पहुच जाता है। १२-क्षीण कषाय :
इस गणस्थान में साधक या मुनि के सम्पूर्ण कषायों का क्षय हो जाता है जिससे उसे नीचे गिरने का भय नहीं रह पाता है उसे वीतराग पद सदा के लिए प्राप्त हो जाता है। इस गुणस्थानवर्ती को क्षीण कषाय निर्ग्रन्थ भी कहा जाता है। १३-सयोग केवली :
इस गुणस्थान में मुनि सर्वज्ञ हो जाता है वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्म का पूरी तरह से क्षय कर देता है तब उसको अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन एवं अनन्तवीर्य की प्राप्ति होती है, लेकिन इस गुण स्थान में साधक की काया की सूक्ष्म क्रिया रह जाता है उसके भाव, मन, योग नहीं रहता और वचन योटी के कारण उनका दिव्य उपदेश होता है । साधक की इस अवस्था को जीवन्मुक्त अवस्था भी कहते हैं। १४-अयोग केवली:
_आयु समाप्त होने से कुछ समय पहले ही जब योग का भो निरोध हो जाता है तब अन्तिम गुण स्थान अर्थात् चौदहवाँ गुणस्थान अयोगकेवली कहा जाता है । यहाँ तक आत्मा का विकास चरमोत्कर्ष तक पहुँच जाता है क्योंकि इस गुण स्थान में शेष समस्त अघाति कर्मों का नाश हो जाता है । द्रव्यकर्म, भाव कर्म और नोकर्म से रहित होकर सिद्ध अन्तिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हो हो जाते हैं और आत्मा के समस्त गुण विकसित हो जाते हैं और उसके पश्चात् एक ही समय में ऊर्ध्व गमन करके लोक के अग्रभाग में पहँचकर ठहर जाते हैं।+ + (क) मूलाराधना ११६५-११६६
(ख) राजवार्तिक ६/१/११/५८८/८ (ग) पंचसंग्रह, संस्कृत १/१५-१८ (घ) स्थानाङ्ग १४