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________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२२४) ६-प्रमत्तसंयत : इस गुणस्थान में स्थित साधक महाव्रती हो जाता है, किन्तु धूलिका रेखा के समान क्रोध आदि का क्षयोपशम हो जाने पर जब महाव्रत का आचरण होता है किन्तु जल रेखा के समान क्रोध आदि कषायों तथा नोकषायों के उदय से चारित्र में मैल रूप प्रमाद भी होता रहता है तब छठा गुण स्थान होता है। ७-अप्रमत्तसंयत : जब साधक संज्वलन कषाय तथा नोकषाय के मंद उदय से प्रमाद रहित होकर आत्म ध्यान में लीन हो जाता है तब उसको अप्रमत्तसंयत नामक गुण स्थान होता है । ८-अपूर्वकरण : यह अवस्था आत्मगुणशुद्धि या आत्मलाभ की अवस्था मानी जाती है क्योंकि इस अवस्था में साधक कषायों के सिवा चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के क्षय करने के लिए श्रेणी चढ़ते समय जो प्रथम शुक्ल ध्यान के कारण प्रतिसमय अपूर्वपरिणाम होते हैं। उस साधक की साधना में नये-नये अपूर्व भाव प्रगट होते हैं। यही अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान है। ६-अनिवृत्तिकरण : __ इस गणस्थान में साधक के ६ नोकषायों का तथा अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान-आवरण कषाय सम्बन्धी क्रोध, मान, माया आदि २० चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियों का क्षय होकर स्थूल लोभ शेष रह जाता है। इस गुणस्थानवर्ती के निरन्तर एक ही परिणाम होता है। १०-सूक्ष्मसाम्पराय : साम्पराय का अर्थ कषाय होता है । इस गुणस्थान में साधक के कुसुम्भ रंग के समान सूक्ष्म लोभ रह जाता है इसीलिए इसे सूक्ष्म कषाय के नाम से भी जाना जाता है। ११-उपशान्तकषाय : इस गुणस्थान तक पहुँचते-पहुँचते साधक के सम्पूर्ण कषायों का
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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