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(२२३) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
१-मिथ्यादृष्टि :
इस अवस्था में दर्शन मोहनीय कर्म की प्रबलता के कारण, वीत. राग सर्वज्ञ अर्हत भगवान के द्वारा बतलाये गये तत्त्व, द्रव्य, पदार्थ, गुरु एवं जिनवाणी के प्रति श्रद्धा का न होना मिथ्यात्व गुणस्थान है। यह गुण स्थान मिथ्यात्व कर्म के उदय से होता है। २-सासादन-सम्यग्दृष्टि :
प्रथमोपशम सम्यक्त्व वाले व्यक्ति के जब चारों कषायों में से किसी एक कषाय का उदय हो जाता है तब उसका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है। सम्यक्त्व का क्षणिक आस्वादन होने से ही इस गुण स्थान को सासादन कहा गया है। ३-सम्यक मिथ्यादृष्टि :
जिस प्रकार से दही और खांड को मिला देने से एक अलग ही स्वाद बन जाता है उसमें न तो दही का स्वाद आता है और न ही खांड का अपितु एक मिश्रित स्वाद बन जाता है, उसी प्रकार सम्यगमिथ्यात्व के उदय से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रित परिणाम होता है । इस गुण स्थान वाले न तो सत्य का ही दर्शन कर पाते हैं और न ही मिथ्यात्व का । इस गुणस्थान में न तो आयु बँधती है और न मरण होता है। ४-अविरत सम्यकदृष्टि :
__ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व, सम्यक मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति इन सात प्रकृतियों के उपशम होने से या क्षय अथवा क्षयोपशम होने से जो उपशम, क्षायिक या क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय बना रहता है । वह अविरत सम्यक्दृष्टि गुण स्थान होता है । ५-देशविरत :__ इस गुणस्थान में पूर्ण रूप से तो नहीं परन्तु आंशिक रूप में चारित्र का पालन होता है। यह पाँच पापों का एक देश त्याग करके ११ प्रतिमाओं में से किसी एक प्रतिमा का चारित्र पालन करता है तब उसके देशविरत गुण स्थान होता है।