________________
नवम् परिच्छेद
ध्यान एवं गुणस्थान जैन दर्शन में 'गुण' शब्द वस्तु की किन्हीं सहभावी विशेषताओं का वाचक माना गया है । प्रत्येक द्रव्य में अनेक गुण पाये जाते हैं । एक गुण में अनेकों पर्याय हो सकते हैं परन्तु एक गुण में कभी भी अन्य कोई और गुण नहीं हो सकता।
दर्शन मोहनीय आदि कर्मो के उदय, उपशम, क्षय क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर जिन भावों के उत्पन्न होने से जीव लक्षित किये जाते हैं उन भावों को मनीषियों ने "गुणस्थान" कहा है। + मोह और मन, बचन काय की प्रवृत्ति के कारण जीवों के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण जो उतार-चढ़ाव होता रहता है वह गुणस्थान कहा गया है । यद्यपि विद्वानों ने माना है कि परिणाम हमेशा अनन्त होते हैं, परन्तु उत्कृष्ट मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट वीतराग परिणाम तक १४ गुणस्थान माने गये हैं, जो कि इस प्रकार से हैं-१-मिथ्यादृष्टि, २-सासादन सम्यग्दृष्टि, ३-सम्यग्मिथ्यादृष्टि, ४-अविरतसम्यग्दृष्टि, ५-देबि रत, ६-प्रमत्तसयत, ७-अप्रमत्त संयत, ८-अपूर्वक रण, ६-अनिवृत्तिकरण, १०-सूक्ष्मसाम्पराय, ११-उपशाख कषाय, १२-क्षीण कषाय, १३-संयोगकेवली और १४-अयोगकेवली
+- जेहिं दु लक्खिज्जते उदयादिसु संभवेहि भावेहिं ।
जीवा ते गुणसण्ण! णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं ॥ (पंचसंग्रह, प्रा० १/३) (क) षट्खण्डागम १/१/१/६-२२ (ख) मिच्छोसासण मिस्सो अबिरदसम्मो य देसविरदो य ।
विरदा पमत्त इदरो अपुव्व आणि यह सुहमो या उवसंत खीण मोहो सजोग केवलिजिणो अजोगीय । च उदस जीवसमासा कमेण सिद्धा य णादव्या ।। (शास्त्रसार समुच्चय पृ० ३५७)