________________
जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन (१४८)
तत्वानुशासन में ध्याता उसे कहा गया है जिसकी मुक्ति निकट आ रही हो, जिसने अपनी इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, जो परिग्रह त्यागी हो जिसने आर्त व रोद्र ध्यान का त्याग करके ध्यान में चित्त को लगा लिया हो यही ध्याता कहलाता है। + यहाँ ध्यान की सामग्री के आधार पर भी ध्याता व ध्यान के तीन-तीन भेद किये हैं
उत्कृष्ट सामग्री उत्कृष्ट ध्याता उत्कृष्ट ध्यान मध्यम सामग्री मध्यम ध्याता मध्यम ध्यान जघन्य सामग्री जघन्य ध्याता जघन्य ध्यान
आचार्य जिनसेन ने जो वज्रवषभ नाराच संहनन नामक अतिशय बलवान शरीर वाला, जो शास्त्रों का ज्ञाता हो, तप करने में शूरवीर हो एवं जिसने सभी अशुभ लेश्याओं का त्याग किया हो आदि इन गुणों से युक्त साधक को ध्याता कहा है ।- ऐसा नहीं है कि जो व्यक्ति ज्ञानी हो वही धर्म्य ध्यान का अधिकारी हो अल्पज्ञानी भी ध्याता हो सकता है लेकिन जिसका मन अस्थिर हो वह ध्याता नहीं हो सकता है ।* ध्यान के लिए ज्ञानी होना कोई जरूरी नहीं है। गृहस्थ व्यक्ति को भी जिसमें सभी गुण होते हैं ध्याता माना गया है उसको भो धम्यं ध्यान हो सकता है ।.... अनुप्रेक्षा :
स्वाध्याय मोर ध्यान ये दोनों आत्मोपलब्धि के साधन हैं । ये दोनों एक-दूसरे के सहायक हैं इसलिए एक के द्वारा दूसरे का अभ्यास किया जाता है. दोनों का अभ्यास जब खूब परिपक्व हो जाता है तो वह परमविशुद्ध स्वानुभूति का विषय बन जाता है। + तत्त्वानुशासन ४१-४५
सामग्रीतः प्रकृष्टाया ध्यातरि ध्यानमुत्तमम् । स्याज्जघन्यं जघन्याया मध्यमायास्तु मध्यमम् ।। (तत्त्वानुशासन ४६) - आदिपुराण २१/८५-८६ * महापुराण २१/१०२ .... ज्ञानार्णव ४/१७ = स्वाध्यायाद् ध्यानमध्यास्तां ध्यानात्स्वाध्यायमाऽऽमनेत् । ध्यान-स्वाध्याय-सम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते ॥ (तत्त्वानुशासन ८१)