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भारतीय परम्परा में ध्यान (२१)
कहा गया है। अगर्भ प्राणायाम से सगर्भ प्राणायाम सौ गुना श्रेष्ठ माना गया है, इसीलिये योगी सगर्भ प्राणायाम करते हैं ।+
__ इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराणों में ध्यान के महत्व की विस्तृत रूप से चर्चा की गई है। ध्यान के समान कोई तीर्थ नहीं है, ध्यान के समान कोई तप नहीं है और ध्यान के समान कोई यज्ञ नहीं है, इसलिये ध्यान को अवश्य ही करना चाहिये । X योगवाशिष्ठ में ध्यान:
योगवाशिष्ठ वैदिक साहित्य का ही एक अड्.ग है। इस अतिप्राचीन ग्रंथ में योग का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है । इसके छ: प्रकरणों में योग के सब अड.गों का वर्णन किया गया है। योगवाशिष्ठ के उपशम प्रकरण के छत्तींसमें सर्ग में ध्यान का वर्णन किया गया है वहां ध्यान के पर्यायरूप में समाधि का उल्लेख किया गया हैं । बद्धि, अहंकार, चित्त, कर्म, कल्पना, स्मृति, वासना इन्द्रियाँ, देह पदार्थ आदि को मन के रूप में ही माना गया है । मन अत्यन्त शक्तिशाली होता है, यही पुरुषार्थ में सहायक होता हैं । जब योगी अपने मन को पूरी तरह से शान्त कर लेता है तभी तो उसको ब्रह्मत्व की प्राप्ति होती है ।- यहाँ पर समाधि का लक्षण बतलाते हुए कहा गया है कि जो गुणों का समूह, गुणात्मक तत्व है वह समाधि है एवं जो इनको अनात्मरूप देखते हुए
प्राणाख्यमननिलं वश्यमभ्यासारुते तु यत् । प्राणायामरूप विज्ञेयस्सबीजोऽबीज एव च ।। [विष्णु पुराण, षष्ठ
अंश ७/४०) + अगर्भाद् गर्भ संयुक्तः प्राणायामः शताधिकः । तस्मात्गर्भ कुर्वन्ति योगिनः प्राण संयमम् ।। (शिवपुराण, वायवीय
संहिता, उ. ख. ३७/३४) + नास्ति ध्यानसमं तीर्थं नास्ति ध्यान समं तपः ।
नास्ति ध्यानसमो यज्ञस्तस्माद् ध्यानं समाचरेत् ।। (शिवपुराण, वायवीय संहिता उ० ख० ३६/२८) योगवाशिष्ठ ६/११४/१७, ६/७/११, ६/१३६/१, ३/११०/४६ - वही ५/८६/९