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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
अपने आपको केवल इनका साक्षीभूत चेतन जानता है, और जिसका चित्त स्वभाव सत्ता में लगकर शीतल हो गया है वह समाधिस्थ कहलाता है।
योगवाशिष्ठ में योग की तीन रीतियों का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार से है।... १-एकतत्वघनाभ्यास, २- प्राणों का निरोध, ३- मनोनिरोध । ब्रह्माभ्यास के द्वारा अपने को उसी में लीन कर लेना एकतत्वघनाभ्यास कहलाता है। प्राणों के निरोध में प्राणायाम आदि की अपेक्षा की जाती है । मन के निरोध के द्वारा साधक अपनी समस्त इच्छाओं को पूरी तरह से शमन कर लेता है।x अविद्या दुखों का मूल कारण है, सम्यग्दर्शन के द्वारा अविद्या का नाश होता है।* आत्मा तो अविनाशी होती है, शरीर के नाश होने पर आत्मा का नाश होता है । शरीर का सम्बन्ध तो इन्द्रियों से है न कि आत्मा से । इन्द्रियों के नाश होने पर आत्मा का नाश नहीं होता। आत्मा और है और देह, मन प्राण इन्द्रिय और बुद्धि आदि यह कोई एक और ही विलक्षण भाव है। चित्त के उदय होने पर आत्मा अनात्मा बन जाता हैं। साधक को सम्यकदर्शी को मोह नहीं होता, वह साक्षात् शरीर ही मोक्षरूप है । इस प्रकार से योगवाशिष्ठ योग का महाग्रन्थ कहलाता
हठयोगः... वैदिक संस्कृति से शुरु होकर ध्यान-योग अनेक संस्कृतियों में विभिन्न रूपों से गुजरता रहा। जब नदी में बाढ़ आती है तब वह चारों ओर से बहने लगती है, यही हाल योग के साथ हुआ, वह आसन मद्रा, प्राणायाम एवं ध्यान आदि बाह्य अंगों में प्रवाहित होने लगा। बाह्य अंगों का भेद प्रभेद पूर्वक इतना अधिक वर्णन किया गया और
A योग वाशिष्ठ उपशम प्रकरण, अध्याय ३६/१० .... योगमनोविज्ञान, पृ० १२ x योगवाशिष्ठ ५/८ * प्राज्ञ विज्ञातविज्ञेयं सम्यग्दर्शमाधयः ।
न दहन्ति वनं वर्षासिक्तमग्निशिखा इव । (वही २/११/४१) जवही ५/५१/१-५