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भारतीय परम्परा में ध्यान [२३) उस पर इतना अधिक जोर दिया गया कि जिससे योग की एक शाखा अलग ही बन गई, जो हठयोग के नाम से प्रसिद्ध हई।
हठयोग -सिद्धान्त की चर्चा योगतत्वोपनिषद् एवं शाण्डिल्योपनिषद् में भी है। हठयोग के आदि प्रवर्तक शिव माने जाते है ।+ हठयोग का अर्थ है- चन्द्र-सूर्य, इडा-पिंगला, प्राणअपान का मिलन अर्थात् है सूर्य, चन्द्र अर्थात् सूर्य और चन्द्र का संयोग ।
हठयोग में शारीरिक विकास की ओर ज्यादा ध्यान दिया गया है क्योंकि अगर शरीर स्वस्थ होगा तो साधक का चित्त भी शान्त रहेगा और जब चित्त शान्त रहेगा तो वह ध्यान भी भली प्रकार से कर सकेगा। हठयोग में सात अड्.ग प्रमुख है-षट्कर्म, प्राणायाम, आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, ध्यान एवं समाधि । यहां आसन एव प्राणा-- याम को विशेष महत्व दिया गया गया है। यहां बतलाया गया है कि हठयोग के बिना राजयोग नहीं हो सकता और राजयोग के बिना + श्री आदिनाथाय नमोऽस्तु तस्मै येनापदिष्टा हठयोगविद्या । विभाजते प्रोन्नतराजयोगमारोढुमिच्छोरधिरोहिणीव ॥ (हठयोग
दीपिका १/१) 0 (क) नत्वा साम्बं बह्मरूपं भाषायां योगबोधिका ।
मया मिहिरचंद्रेण तन्यते हठदीपिका ।। (वही १/१) (ख) चंद्रांगे तु समभ्यस्य सर्या गे पुनरभ्यसेत् ।
यावत्तुल्या भवेत्संख्या ततो मुद्रां विर्सजयेत् ॥ ( वही
३/१५ = षटकर्मणा शोधनं च आरानेन भवेदृढम् । मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता । प्राणायामल्लाघवं च ध्यानात्प्रत्यक्षमात्मनि । समाधिना निलिप्तश्च मुक्तिरेव न संशयः ॥ ( घेरण्डसंहिता
१/१०/११) A धोतिबस्तिस्तथा नैतिस्त्राटकं नौलिक तथा।
कपाल भातिश्चैतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते ॥ (हठयोग प्रदी
पिका २/२२) * वही, टी० १/१७/१७