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जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
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हठयोग नहीं सिद्ध हो सकता। राजयोग की प्राप्ति के लिए साधक को कुम्भक प्राणायाम से प्राण का रोध कर अंत में अन्त: करण को निराश्रय कर देना चाहिये इस अभ्यास से ही वह राजयोग की प्राप्ति करता है।... हठयोग का सम्बन्ध आत्मा एवं मन की अपेक्षा शरीर से ज्यादा माना गया है। जब साधक की कुण्डलिनी शक्ति जागत हो जाती है तो उसका चित्त निरालम्ब एवं मृत्युभय से रहित हो जाता है और यही योगाभ्यास की जड़ है*, इसी को कैलाश भी कहते हैं।
हठयोग में समाधि का विशद वर्णन करते हुए उसके पर्यायों का भी वणन किया गया है। जिस प्रकार से आत्मा में धारण किया ह मन आत्माकार होने से आत्मस्वरूप को प्राप्त होता है, उसी प्रकार आत्मा और मन की एकता समाधि कहलाती है। जब प्राण भली प्रकार से क्षीण हो जाता है और मन का भी लय हो जाता है उस समय में हुई समरसता समाधि कहलाती है + x अनर्गला सुषुम्ना च हठसिद्धिश्च जायते ।
हठं बिना राजयोगं विना हठः ।
न सिध्यति ततो युग्ममानिष्पत्तः समभ्यसेत् ॥ (वही ३/७६) .... कुंभक प्राणरोधांते कुर्याचित्तं निराश्रयम्।
एवमभ्यासयोगेन राजयोगपदं व्रजेत् ॥ (हठयोग प्रदीपिका ३/७७) X सन्त मत का सरभंग सम्प्रदाय, पृ० ६६-६८ * भारतीय संस्कृति और साधना, भाग २, पृ० ३६७ - अतऊर्ध्व दिव्यरूपं सहस्त्रारं सरोरुहम । ब्रह्माण्ड व्यस्त देहस्थं बाह्य तिष्ठति सवंदा। कैलाशो नाम तस्यैव महेशो यत्र तिष्ठति ॥ (शिवसहिता ५) राजयोगः समाधिश्च उन्मनो च मनोन्मनी। अमरत्वं लयस्तत्वं शून्याशून्यं परं पदम् ॥ अमनस्कं तथा तं निरालंब निरंजनम् । जीवन्मुक्तिश्च सहजा तुर्या चेत्येकवाचका:।। (हठयोग प्रदीपिका
४/३-४) + हट्टयोग प्रदीपिका ४/५-७