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[२०) जैन परम्परा म ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
हुई आग सूखी एवं गीली लकड़ी को भी जला देती है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि शुभ अशुभ कर्मों को क्षण भर में जला देती है । जिस प्रकार से एक छोटा सा दीपक भी अन्धकार का नाश कर देता है उसी प्रकार से थोड़े से योगाभ्यास के द्वारा योगी महान पापों का विनाश कर देता है एवं क्षण भर के श्रद्धापूर्वक किये हुए ध्यान के द्वारा साधक अनन्त श्रेय को प्राप्त करता है ।...
__ श्रीमद् भागवत पुराण में नारद ने ध्यान के महत्व को समझाते हुए ध्रव को आसन लगाकर, प्राणायाम के द्वारा प्राण, इन्द्रिय तथा मन के मैल को दूर करके ध्यानस्थ हो जाने के लिए कहा था।x प्राणायाम को शिव पुराणों में दो प्रकार का कहा गया है १- अगर्भ, २- सगर्भ । अगर्भ प्राणायाम वह कहलाता है जिसमें जप तथा ध्यान के बिना ही, मात्रा के अनुसार किया जाये जबकि सगर्भ प्राणायाम के अंतर्गत जप तथा ध्यान अवश्य हो जाता है। विष्णु पुराण में अगभं को अबीज तथा सगर्भ को सबोज प्राणायाम
.... यथा वल्लिमहादीप्तः शुष्कमा च निर्दहेत् ।
तथा शुभाशुभं कर्म ध्यानाग्निर्दहते क्षणात् ।। ध्यायतः क्षणमात्र वा श्रद्धया परमेश्वरम । यद्भवेत् सुमहेच्छ यस्तस्यान्तो नैव विद्यते ॥ (शिवपुराण वाववीय
संहिता, उत्तर खण्ड, ३६/२५,२६) x प्राणायामेन त्रिवत्ता प्राणेन्द्रियमनोमलम् । शनैयुदास्याभिध्यायेन्मनसा गुरूणां गुरुम् ॥ (भागवतपुराण
*(क) अगर्भश्च गर्भसंयुक्त प्राणायामः शताधिकः । तस्मात् गर्भ कुर्वन्ति योगिनः प्राणसंयमम् ।। शिवपुराण, वायवीय
संहिता ३७/३३) (ख) श्रीमद् भागवतपुराण ३/२८/९ -~~ अगर्भश्च सगर्भश्च प्राणायामो द्विधा स्मृतः (
जपं ध्यानं विनाऽगर्भः सगभंस्तत्समन्वयात् ।। (वहीं उ० ख० ३७/३३)