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[२४५] जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
से रहित, शाश्वत आनन्द से युक्त मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेती है । इस सिद्धावस्था में आत्मा निद्रा, भय, भ्रान्ति, राग, द्वेष, पीड़ा, शोक, मोह, जरा, जन्म, मरण, क्षुधा, खेद, उन्माद, मूर्छा बादि से रहित हो जाती है तथा आत्मा में न तो वृद्धि होती है और न ही ह्रास | मुक्तात्मा के द्वारा जो आनन्द अनुभव किया जाता है वह अनिर्वचनीय है ।
योग परम्परा में सिद्ध आत्मा को अनेक नामों से पुकारा गया है । ब्राह्मणों ने उस सिद्धात्म को ब्रह्म कहा है, वैष्णवों ने विष्णु, तापसों ने रुद्र और जैन, बौद्ध एवं कौलिक आदि ने उसे क्रमशः जिनेन्द्र, बुद्ध एवं कौल कहा है । X चाहे इस सिद्धावस्था को अर्थात् निर्वाण को किसी भी नाम से किसी भी रूप में जाना जाये वह अनेक नामों वाला होकर भी एक ही तत्त्व का बोध कराता है । *
इस प्रकार से हम देखते हैं कि जो भी सार पदार्थ है वह मोक्ष है और ध्यान की आराधना के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से सम्बन्ध विच्छेद रूप अभाव का नाम मोक्ष है। कर्मों. का यह अभाव ध्याग्नि से उन्हें जलाने के द्वारा बनता है ।
+ एकान्तक्षीणसंक्लेशो निष्ठितार्थस्ततश्च सः ।
निराबाधः सदानन्दो मुक्तावात्माऽवतिष्ठते ।। ( योगबिन्दु ५०४ ) निद्रातन्द्राभयभ्भ्रान्तिरागद्वेषात्ति संशयः ।
शोकमोह जराजन्ममरणाद्यैश्च विच्युतः ॥ क्षुत्तृट्श्रममदोन्मादमूर्च्छामात्सर्य वर्जितः ।
वृद्धिह्रासव्यतीतात्मा कल्पनातीतवैक्षवः ।। (ज्ञानार्णव ४२/७१-७२ ) X ब्राह्मणैर्लक्ष्यते ब्रह्मा विष्णुः पीताम्बरंस्तथा । रुद्रस्तपस्विभिर्दृष्ट एष एव निरंजनः ।।
जिनेन्द्रो जल्प्यते जैनैः बुद्धः कृत्वा च सौगतैः ।
कौलिकैः कौल आख्यातः स एवायं सनातनः ।। (योगप्रदीप ३३/३४) ** संसारातीततत्त्वं तु परं निर्वाणसंज्ञितम् ।
यद्धयेकमेव नियमात् शब्द भेदऽपि तत्त्वतः ॥ ( योगदृष्टि समुच्चय १२८)