________________
धर्मध्यान का वर्गीकरण (१६१)
अपने कर्मों का नाश करके व्यक्त रूप परमेष्ठी हो जाता है ।+ इस ध्यान में ध्याता, ध्यान और ध्येय की एकता हो जाती है और इसी एकता को समरसीभाव भी कहते हैं । यह ध्यान निरालम्ब ध्यान के अन्तर्गत आता है नयोंकि इसमें न तो किसी प्रकार का मन्त्र जप होता है और न ही किसी चीज का अवलम्बन । रूपातीत ध्यान का आलम्बन अमूर्त-आत्मा का चिदानन्दमय स्वरूप होता है, इसका साधक आत्मा के ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुख आदि गुणों में अपनी चित्त वृत्ति को स्थिर कर लेता है । इस ध्यान को मानने का आधार निश्चय-नय है । पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ये तीनों ध्यान सालम्बन ध्यान के अन्तर्गत आते हैं क्योंकि इन ध्यानों में आत्मा से भिन्न वस्तुओं-जैसे मन्त्र, अप आदि का आलम्बन लिया जाता है।
प्रारम्भ में साधक को सालम्बन ध्यान को रोकने के लिए कहा गया है क्योंकि इस ध्यान में एक स्थूल आलम्बन होता है जिससे साधक का मन एकाग्र होकर चिन्तन करता है। इससे ध्यान सुविधाजनक हो जाता है । जब साधक या मुनि इस ध्यान में परिपक्व हो जाते हैं, तब निरालम्बन ध्यान को ध्याने की योग्यता उसमें आ जाती है और वह इस निरालम्बन ध्यान अर्थात् रूपातीत ध्यान का चिन्तन कर सकता है । इसीलिए आचार्यों ने पहले सालम्बन ध्यान का अभ्यास करने के लिए कहा है और जब साधक इस ध्यान में सध जाये तो उसे छोड़कर निरालम्बन ध्यान के अभ्यास को कहा है।क्योंकि स्थल से सूक्ष्म, सविकल्प से निर्विकल्प और सालम्बन से निरालम्बन की ओर ही जाया जाता है, यह तो सर्व सम्मत है। + (क) तद्गुणग्रामसंपूर्ण तत्स्वभावकभावितः ।
कृत्वात्मानं ततो ध्यानी योजयेत्परमात्मनि ।। (ज्ञानार्णव४०/१९) (ख) सहज सुख सहजबोधं । सहजात्मकवेनिप काष्के एंबीनलविं।
सहजमेने नेलसिनिंदी। वहलतेयिंददविनाश रूपातीतं ॥
(शास्त्रसार समुच्चय २०४) योगशास्त्र १०/३-४ (क) ज्ञानसार ३७ (ख) योगशास्त्र १०/५
-