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(१६०) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
__ रूपस्थ ध्यान को करने वाला साधक सर्वज्ञ देव की आराधना करके जो संसार को दुर्लभ है ऐसे मोक्ष पद को प्राप्त होता है, वह सभी अवस्थाओं में उस परमेष्ठी को देखता है ।.... रूपातीत ध्यान :
. रूपातीत-रूप और अतीत मिलकर बना है। "रूप" का अर्थ हैमूर्तिमान पदार्थ सहित पुद्गल दृश्यमान पदार्थ और 'अतीत' का अर्थ है-रहित । अर्थात् शुद्ध चैतन्य ज्ञानानन्दघन स्वरूप आत्मा-शद्धात्मा । इस प्रकार का आत्मा जो द्रव्यकर्म, भाव कम ओर नौ कम से रहित हो ऐसे निरञ्जन स्वरूप का ध्यान रूपातीत ध्यान कहलाता है। A इस ध्यान में साधक चिदानन्दमय, शद्ध, अमूर्त परमाक्षर आत्मा को आत्मा से ही ध्याता है । x रूपातीत ध्यान परमात्मा का शुद्ध रूप ध्यान है, इसमें मुनि अपनी आत्मा को ही परमात्मा समझ कर स्मरण करता है । ध्यानी सिद्ध परमेष्ठी के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने आपको भी उनके समान जानकर अपने आपको उनके ही समान व्यक्त रूप करने के लिए उनमें लीन होता है और
.... यमाराध्य शिवं प्राप्ता योगिनो जन्मनिस्पृहाः ।
यं स्मरन्त्यनिशंभव्याः शिवश्रीसगमोत्सुका: ॥ ज्ञानार्णव ३६/३३-३६) A (क) “रूपातीतं निरुजनम् । (वृहद्रव्यसंग्रह ४८/२०१) (ख) परमात्म प्रकाश १/६/६ (ग) गुणभद्रश्रावकाचार २४३ x (क) चिदानन्दमयं शद्धममूर्त परमाक्षरम् ।
स्मरेद्यत्रात्मनात्मानं तद्रूपातीतमिष्यते ॥ (ज्ञानार्णव४०/१६) । (ख) वण्ण-रस-गंध-फासेहिं वज्जिओ णाण-दसणसरूवो।
ज झाइज्जइ एवं तं झाणं रुवरहियंति ।। (वसुनन्दि भावका
चार ४७६) (ग) योगशास्त्र १०/१ (घ) रूपातीतं भवेत्तस्य यस्त्वां ध्यायति शुद्ध धीः ।
आत्मस्थं देहतो भिन्नं देहमात्र चिदात्मकम् ॥ (ध्यानस्तव ३२)