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धर्मध्यान का वर्गीकरण(१८६) रूपस्थ ध्यान कहलाता है।+ जिन अरहन्त देव से अनन्तज्ञान, दर्शन दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और चारित्र इन नौ लब्धि रूपी लक्ष्मी की उत्पत्ति हुई है एवं जो सर्वज्ञ है, दाता हैं, सर्व हितैषी हैं, वर्धमान हैं, निरामय हैं, नित्य हैं, अव्यय हैं, अव्यक्त हैं, एवं पुरातन हैं, ऐसे तीर्थकर का स्मरण करके जो ध्यान साधका करता है वही ध्यान रूपस्थ ध्यान है । सर्वचिद्रूप का चिन्तवन रूपस्थ ध्यान है। - इस ध्यान में वीतरागी का ही ध्यान करना चाहिये क्योंकि जब साधक वीतरागी का ध्यान करता है तो वह वीतरागी बन जाता है और रागी का चिन्तन करने से वह स्वयं भी रागी बन जाता है =, क्योंकि जिन-जिन भावों से वह जीव जूड़ता है वह उन्हीं भावों से तन्मयता को प्राप्त हो जाता है। + (क) वसुनन्दि श्रावकाचार ४७२-४७५
(ख) गुणभद्र श्रावकाचार २४२ (ग) ज्ञानार्णव ३६/१-८ (घ) शास्त्रसारसमुच्चय २०३ नवके वललब्धि श्री संभवं स्वात्मसंभवम् । तुर्यध्यान महावह्नौ हुतकर्मेन्धनोत्करम् ।। रत्नत्रयसुधास्यन्दमन्दीकृत भवश्रमम् । वीतसगं जितद्वतं शिवं शान्तं सनातनम् ॥ अहन्तमजमव्यक्तं कामदं कामनाशकम् । पूराण पुरुषं देवं देव देवं जिनेश्वरम् ॥ ज्ञानार्णव ३६/२४-३१ ।। - रूपस्थं सर्वचिद्रूपं । (वहद्रव्यसंग्रह ४८/२०१) -- (क) वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् ।
रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात् क्षोभणादिकृत ॥ (योग
शास्त्र ९/१३) (ख) एष देवः स सर्वज्ञः सोऽहं तपतां गतः ।
तस्मात्स एब नान्योऽहं विश्वदर्शीति मन्यते ॥ (ज्ञानार्णक
३९/४३) * येन येन हि भावेन युज्यते यन्त्रवाहकः । तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा।। (योगशास्त्र ६/१४)