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________________ (१८८)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन इस प्रकार पदस्थ ध्यान में चित्त को एकाग्र करने के लिए पदों अर्थात् मन्त्रों एवं बीजाक्षरों का सहारा लिया जाता है जो मुक्ति की कामना करने वाले हैं उनके लिए मन्त्र रूपी पदों का अभ्यास करने के लिए कहा गया है, इन मन्त्रों के अभ्यास से साधक के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है एवं उसके लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के साथ-साथ मोक्ष पद की प्राप्ति हो जाती है । रूपस्थ ध्यान : 'रूप' शब्द के अनेक अर्थ हैं, कहीं तो उसका तात्पर्य नेत्रों द्वारा ग्रहण किये गये गुण से है तो कहीं स्वभाव से है लेकिन ध्यान योग के सम्बन्ध में इसका अर्थ अलग ही निकाला गया है वहाँ 'अन्तरंग शुद्धात्मानुभूति की द्योतक निर्ग्रन्थ एव निर्विकार साधुओं की बीतराग मुद्रा को रूप कहा गया है ।" और रूपस्थ ध्यान अर्थात् रूपयुक्त तीर्थंकर आदि इष्ट देव का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है। इस ध्यान में साधक तीर्थंकर आदि के गुणों एवं आदर्शो को अपने समक्ष रखकर उनके स्वरूप का सहारा लेकर जो ध्यान करता है वही ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाता है। - इसमें योगी तीर्थंकर के नाम एवं उनके उज्ज्वल धवल प्रतिबिम्ब का ध्यान करता है । .... आकाश और स्फटिक मणि के समान स्वच्छ अपने शरीर की प्रभा रूपी जल निधि में लीन तथा जिनके चरण मनुष्य एवं देवों के मुकुट में लगी हुए मणियों से अनुरंजित हैं एवं जो माठ महाप्रतिहार्यों से घिरे हुए हैं ऐसे अरहन्त भगवान का ध्यान ही - + ज्ञानार्णव ३८/९१६ । र अन्तरङगशुद्धात्मानुभूति रूपकं निर्ग्रन्थं निर्विकारं रूपमुच्यते। (प्रवचनसार, ता. वृ. २०३/२७६/८) -- अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यो । (योगशास्त्र ६/७) ... तव नामाक्षरं शुभ्र प्रतिबिम्बं च योगिनः । ध्यायतो भिन्नमीशेदं ध्यानं रूपस्थ मीडितम् ॥ (ध्यानस्तव ३१)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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