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उपसंहार (२५०)
अकिञ्चनोऽहं इति आस्व त्रैलोक्याधि पतिर्भवेत् । योगिगम्यम् तवप्रोक्तम रहस्यं परमात्मनः ।।
अर्थात् मैं अकिञ्चन ह इस प्रकार की भावना करना चाहिए क्योंकि इससे तीनों लोकों के अधिपतित्व की प्राप्ति होती है । तुझ परमात्मा का जो रहस्य है वह योगिगम्य है। यथार्थ में जिसकी शरीर के साथ में भी एकता नहीं है उसकी पुत्र कलत्रादि के प्रति एकता कैसे हो सकती है । चर्म के अलग कर देने पर शरीर में रोमकप की स्थिति वहाँ रह सकती है। तात्पर्य यह है कि यह भावना रखनी चाहिए कि एक आत्मा को छोड़कर मेरा संसार में कुछ भी नहीं है । इस प्रकार की भावना पूर्वक समस्त पर वस्तुओं यहाँ तक कि रागद्वेषादि का भी जब परित्याग कर दिया जाता है, तो अकिञ्चनत्व की प्राप्ति होती है । गुणस्थान :
साधक नब आत्म विकास के विभिन्न सोपानों को क्रमशः पार करता हुआ आत्मोन्नति की ओर जब अग्रसर होता है तो उसकी इस अवस्था को जैनागम में गुणस्थान नाम से कहा गया है। किस गुणस्थान में कौन सा ध्यान होता है यह विवरण भी आगम में उपलब्ध होता है । अन्त में गुणस्थानातीत अवस्था होती है जो चरम साक्ष्य है। अनुप्रेक्षा :
साधक को आत्मोन्नति के लिए संसार शरीर और भोगो के स्वभाव का निरन्तर चिन्तन करते रहना चाहिये । इसे ही जैन परिभाषा में अनुप्रेक्षा कहा गया है। अनुप्रेक्षा से संसार का स्वरूप यथार्थ रूप में सामने आ जाता है । तब साधक अपने कर्तव्य कर्म का निश्चय करता हआ आगे बढ़ता है । ये अमुप्रेक्षाये द्वादश कही गयी हैं-१-अनित्य, २-अशरण, ३-संसार, ४-एकत्व, ५-अन्यत्व, ६अशुचि, ७-आस्तव, ८-संवर, 8-निर्जरा, १०-लोक, ११-बोधि दुर्लभ तथा १२-धर्म स्वाख्यात तत्व । इनका विस्तृत विवरण दिया जा चुका है।