SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२४६)जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन जाते हैं। यह संयम स्वर्ग नरक और पशु गति में नहीं है । यह नालस्य को हरने वाला और सुख का कर्ता कहा जाता है। तप: तप शब्द की अनेक व्युत्पत्तियाँ शास्त्रकारों ने दी हैं-१-तप्यते इति तपः । २-इच्छानिरोधस्तपः । ३-कमक्षयार्थं तप्यते इति तपः । जो तपा जाये उसे तप कहते हैं । इस प्रकार का तप प्रत्येक सांसा. रिक जीव के होता है, क्योंकि जीवन निर्वाह के लिए व्यक्ति कुछ न कुछ कठिन श्रम करता ही है किन्तु कर्मो के क्षय के लिए इन्द्रिय और विषयों का परिहार करते हुए प्राणि पीड़ा से दूर रहते हुए दूसरे के अनुग्रह की बुद्धि से जो तप किया जाता है वही सार्थक है। इससे ही कर्मो का क्षय होता है । एक स्थान पर कहा गया है : अपत्यवित्तोत्तर लोक तृष्णया तपस्विन: के चन् कमं कुर्वते । भवान् पुनः जन्मजरा जिहासया त्रयी प्रवृत्तिं समधीरनारुणत् । कुछ लोग सन्तान के अर्थ तप की साधना करते हैं, कुछ लोग धन के लिए तप तपते हैं, कुछ लोग परलोक में सुख की प्राप्ति के लिए तप करते हैं, किन्तु हे भगवन् ! आप जन्म जरा और मरण का क्षय करने के लिए तप करते हैं : तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है"तपसा निर्जरा च” अर्थात तप से संवर (कर्मो के आने का रुकना) तथा निर्जरा (कर्मों का आंशिक क्षय) होता है। आंशिक रूप से कर्म क्षय होते-होते मोक्ष की उपलब्धि होती है इस प्रकार तप की बड़ी सार्थकता है । यह तप ध्यान में लवलीन हुए बिना नहीं हो सकता । इसीलिए तप के बारह भेदों (छह बाह्य तप-अनशन, अवमौदर्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश एवं आभ्यन्यर तप-प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्यूत्सर्ग और ध्यान) में ध्यान को अन्तिम स्थान दिया गया है क्योंकि तप की चरमपरिणति ध्यान में होती है। अकिञ्चनत्व की भावना :__ जैन धर्म में अकिञ्चनत्व की भावना पर बड़ा जोर दिया गया है। आचार्य पूज्यपाद ने कहा है:
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy