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उपसंहार (२४८)
की प्राप्ति एकदम नहीं होती बल्कि धीरे-धीरे कर्मों के क्षय होने पर होती है । जैसे-जैसे साधक का आत्मिक विकास होता है, वैसे-वैसे ही वह जीवन्मुक्ति के करीब पहुचने लगता है। जैन ध्यान परम्परा की सामान्य विशेषताये :..
जैन ध्यान परम्परा की सामान्य विशेषताओं को संक्षेप में निम्नलिखित रूप से व्यक्त किया जा सकता है :सदाचार पर बल :
जैन परम्परा में सदाचार को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है । आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है :
चारित्त खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्तिणिदिदट्ठो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हु समो॥
चारित्र ही धर्म है । धर्म वह है जो समभाव शब्द से निर्दिष्ट किया गया है । समभाव मोह और क्षोभ से रहित आत्मा को निमंल परिणति का नाम है । इसी निर्मल परिणति की प्राप्ति होना ध्यान का उद्देश्य है । इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु जैन धर्म में पावकों के लिए पच अणुव्रत, तीन गुणवत, चार शिक्षा व्रत, सप्तव्यसन का त्याग, अष्टमूलगुण का धारण तथा षडावश्यकों के पालन का उपदेश दिया गया है । मुनि के लिए पंचमहाव्रत, तीन गुप्तियाँ, पाँच समितियाँ, दस धर्म. परीषह जय एव चारित्र का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार आचरण की साधना के द्वारा परमात्मत्व अथवा मोक्ष की उपलब्धि का मार्ग सुगम होता है तथा लौकिक जीवन में भी नैतिकता की प्रतिष्ठा होती है। संयम का पालन :
भले प्रकार प्रवृत्ति करने को संवम कहते हैं । संयम का पालन करने वाला व्यक्ति पाँच इन्द्रियों और मन का निरोध करता है तथा सूक्ष्म से सूक्ष्म जीव को किसी भी प्रकार की पीड़ा न हो इस प्रकार का प्रयत्न करता है । संयम को रत्न कहा गया है। जिस प्रकार रत्न की सुरक्षा बड़े यत्न से की जाती है उसी प्रकार संयम की सुरक्षा बड़े यत्न से की जाती है। संयम से अनेक जन्मों में संचित पाप नष्ट हो