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( ४४ ) जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन
समय
जैन और डॉ० ए० एन० उपाध्ये के अनुसार इस ग्रन्थ का अनुमानतः ई० छठी शताब्दी है । इस ग्रन्थ में मानसिक दोषों के निवारण के उपाय व आत्मा के भेदों का निरूपण किया गया है तथा समाधि के विभिन्न रूपों का भी विवेचन है । इस ३४५ दोहे हैं । परमात्म प्रकाश पर अनेक टीकायें लिखी जिनमें बामदेव, बालचन्द्र तथा मुनिभद्रस्वामी की कन्नड़ प्रमुख है । + योगसार:
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ग्रन्थ में गयी है टीका
कुल
इसके रचनाकार भी योगीन्दु देव है । इस छोटे से ग्रन्थ में १०७ दोहे हैं । इन दोहों के माध्यम से ही ग्रन्थकार ने आध्यात्मिक गूढ़ एवं रहस्यमयी तत्वों का अति सुन्दर विश्लेषण किया है । इस ग्रन्थ पर इन्द्रनन्दी की टीका है ।
आत्मानुशासन:
इस ग्रन्थ के रचियता आचार्य गुणभद्र हैं । संस्कृत श्लोकों वाली यह वृत्ति योगाभ्यास की पूर्व पीठिका है। इस पुस्तक में, मन को बाह्य विषयों से हटाकर आत्मध्यान की ओर प्रेरित करना चाहिये ऐसा बतलाया गया है । विषयों में लिप्त रहकर आत्मध्यान करना असम्भव है । इस ग्रन्थ का रचनाकाल ई० ६ वीं शताब्दी का मध्य भाग है। - इस ग्रन्थ पर अनेक टीकायें भी लिखी गयो हैं 14
+ डॉ० हीरालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान पृ ११८
ॐ परमात्म प्रकाश तथा योगसार, डा० सम्पादक ए० एन० उपाध्ये, बम्बई, प्रकाशक परमश्रुत प्रभावक मण्डल, १३७, पृ. ११५ भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १२१ 4 टीकाकार एवं अंग्रेजी अनुवादक जे. एल. जैनी, सैक्रेड बुक्स ऑफ दि जैनाज ग्रन्थमाला, ई० सन् १६२८; पं० टोडरमव रचित टीका के साथ, सम्पादक इन्द्रलाल शास्त्री, मल्लिसागर दि० जैन ग्रन्थमाला जयपुर, वीर नि० सं० २४८२